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बनाता खेत की रश्में चला जो हल नहीं सकता
लगाता दौड़ की शर्तें यहाँ जो चल नहीं सकता
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पता तो है सियासत को मगर तकरीर करती है
कभी तकरीर की गर्मी से चूल्हा जल नही सकता
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भरोसा आँख वालों से अधिक अंधों को जो कहते
तुम्हें धोखा हुआ होगा कि सूरज ढल नहीं सकता
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असर कुछ छोड़ जाएगी मुहब्बत की झमाझम ही
किसी के शुष्क हृदय को भिगा बादल नहीं सकता
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अगर निकले वो आहों से तपन सूरज से भी बढ़कर
न सोचो यार अश्कों से बदन ये जल नहीं सकता
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भरोसा भूल कर भी तुम जहाँ में यार करना मत
छले जो नारियों को नित किसे वो छल नहीं सकता
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दुखाए मात का मन जो ‘मुसाफिर’ ठीक कहता है
उसे वरदान ईश्वर का जहाँ में फल नहीं सकता
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’
Comment
आ० भाई शिज्जु जी अपनी उपस्थिति से मान बढ़ने के लिए हार्दिक आभार l
आ0 श्याम भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद l
आ० भाई मोहन जी , हार्दिक आभार i
आ० भाई महर्षि जी , प्रशंसा के लिए आभार l
आ० भाई विजय जी , उपस्तिति से ग़ज़ल का मान बढ़ाने के लिए हार्दिक धन्यवाद .l
आ0 भाई श्याम नारायण जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत आभार l
आ० भाई कृष्णा जी , सरहना के लिये आपका आभारी हूँ ।
आ0 धर्मेंदर भाई , हौसला अफज़ाई का बहुत शुक्रिया ।
बहुत बढ़िया आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बधाई इस सुंदर ग़ज़ल के लिये
आ: लक्ष्मण धामी जी सुंदर रचना के लिये बधाई ..... सादर
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