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बनाता खेत की रश्में चला जो हल नहीं सकता
लगाता दौड़ की शर्तें यहाँ जो चल नहीं सकता
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पता तो है सियासत को मगर तकरीर करती है
कभी तकरीर की गर्मी से चूल्हा जल नही सकता
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भरोसा आँख वालों से अधिक अंधों को जो कहते
तुम्हें धोखा हुआ होगा कि सूरज ढल नहीं सकता
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असर कुछ छोड़ जाएगी मुहब्बत की झमाझम ही
किसी के शुष्क हृदय को भिगा बादल नहीं सकता
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अगर निकले वो आहों से तपन सूरज से भी बढ़कर
न सोचो यार अश्कों से बदन ये जल नहीं सकता
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भरोसा भूल कर भी तुम जहाँ में यार करना मत
छले जो नारियों को नित किसे वो छल नहीं सकता
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दुखाए मात का मन जो ‘मुसाफिर’ ठीक कहता है
उसे वरदान ईश्वर का जहाँ में फल नहीं सकता
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’
Comment
Aadarniya Laxman dhami Ji,
Aaha chha gaye... Dil Ko bha gaye..... Bahut hi khoobsurat gazal kahi aapne. Baar -Baar dheron badhai.
इस खूबसूरत गजल पर ,,,बधाई स्वीकारें आ. laxman dhami जी |
बहुत खूबसूरत अशआर ...दिल से बधाई |
भरोसा आँख वालों से अधिक अंधों को जो कहते
तुम्हें धोखा हुआ होगा कि सूरज ढल नहीं सकता
लाजवाब! आपकी गजले तो गजल के नए आयाम खोल रही है!! हर बार आप चौंका देते है सर! बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है आपसे!इस गजल प्र ढेरों दाद कबूल फ़रमाए आदरणीय!सादर!
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