2122 2122 2122 212
मोतियों को गूंथकर धागा सदा हँसता गया
जंग खाये रास्तों को कांरवाँ चमका गया
ओस से भीगे बदन पर थी नजर खुर्शीद की
प्यास उसकी खुद बुझाकर फूल इक खिलता गया
बन गये अफ़साने कितने और नगमें जी उठे
जब जमीं ने सर उठाया आसमां झुकता गया
कहकशाँ में यूँ नहाई चाँदनी जल्वानशीं
नूर उसका देखकर महताब भी पथरा गया
हुस्न की मलिका कली की देख वो अँगड़ाइयां
चूम कर रुख्सार उसके दफअतन भँवरा गया
फिर तबस्सुम जिन्दगी के शुष्क लब पर आ गई
कनखियों से देखता जब अब्र का टुकड़ा गया
जी उठी फिर वादियों में वो मुहब्बत की ग़ज़ल
इक परिंदा जब तरन्नुम में उसे गाता गया
जुगनुओं की बज्म से जब रात घर वापस चली
इक मुसाफिर राह में सिन्दूर से नहला गया
झील में उगता सवेरा जाल में मछली फँसी
बढ़ गई चहरों की रंगत घर में जब झोला गया
कुलबुलाती भूख की वो चहचहाहट थम गई
वालिदा की चोंच से जब पेट में दाना गया
'राज' कुदरत भी अछूती है न मानव स्वार्थ से
हर करिश्मा तो नफ़ा नुक्सान में तोला गया
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया राजेश दीदी बहुत बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है दिल से दाद हाज़िर है
मतला बहुत ही उम्दा हुआ है
ये अशआर कमाल हुए है -
ओस से भीगे बदन पर थी नजर खुर्शीद की
प्यास उसकी खुद बुझाकर फूल इक खिलता गया.... वाह
फिर तबस्सुम जिन्दगी के शुष्क लब पर आ गई
कनखियों से देखता जब अब्र का टुकड़ा गया...... बेहतरीन
झील में उगता सवेरा जाल में मछली फँसी
बढ़ गई चहरों की रंगत घर में जब झोला गया .... क्या खूब चित्र है
कुलबुलाती भूख की वो चहचहाहट थम गई
वालिदा की चोंच से जब पेट में दाना गया.... उम्दा
इन अशआर में मेरे हिसाब से सुझाव निवेदित है-
बन गये अफ़साने कितने और नगमें बन गये..... बन गए दो बार लिखना जम नहीं रहा
जब जमीं ने सर उठाया आसमां झुकता गया
जी उठी फिर वादियों की वो मुहब्बत की ग़ज़ल........... की के स्थान पर में
इक परिंदा जब तरन्नुम में उसे गाता गया.............. उसे के स्थान पर ग़ज़ल
आज कुदरत भी अछूती है न मानव स्वार्थ से ...... 'राज़' कुदरत अब अछूती है न मानव स्वार्थ से
हर करिश्मा तो नफ़ा नुक्सान में तोला गया ....... हर करिश्मा तो नफ़ा नुक्सान में तोला गया
आपकी ग़ज़लों में मक्ता बड़ी खूबसूरती से आता है इसलिए मुझे कमी लग रही थी
सादर
आदरणीय राजेश कुमारी जी , बहुत ही सुन्दर रचना है ,ये शे'र विशेष प्रभावित कर रहे हैं ..
बन गये अफ़साने कितने और नगमें बन गये
जब जमीं ने सर उठाया आसमां झुकता गया
जुगनुओं की बज्म से जब रात घर वापस चली
इक मुसाफिर राह में सिन्दूर से नहला गया...वाह्ह्ह्हह, बहुत -२ बधाई आपको ! सादर
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