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तकनीकी पक्ष को गुनीजन समझे पर मुझे आपकी गजल बहुत अच्छी लगी
सादर. दिनेश भाई . .
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल पर |
बिन किसी विभीषण के ढहती है कहाँ लंका
साज़िशों में कुछ अपने मोतबर निकलते हैं - KHOOBSOORAT GAZAL - BADHAEE BHAEE
बहुत ही बढियां ग़ज़ल
दिल हमारा आईना आप हैं खरे पत्थर
बज़्म आपकी और हम टूट कर निकलते हैं
आह क्या कहा है .. दिल चीर डाला इस शेर ने
आदरणीय दिनेश भाई, इस सुन्दर बह्र में आपकी आहंगखेज ग़ज़ल पढ़कर आनंद आ गया. मतले में अशआर लय में बाधा उत्पन्न नहीं कर रहा है फिर भी मात्रा गिराना मुझे उचित नहीं लग रहा. विशेष रूप से इस बह्र में संभवतः फाइलुन - मुफाईलुन की आवृत्ति में ऐसे लफ़्ज़ों की कमी नहीं है कि मात्रा गिरानी पड़े. मैं भी आदरणीय शिज्जु भाई से सहमत हूँ . वाइज वाले शेर में भी उला में भेद शब्द बह्र से बाहर जा रहा है
वाइज वाला शेर मेरे हिसाब से कहन के स्तर पर ठीक है, जैसे ग़ालिब चचा का ये शेर देखें -
कहाँ मयखाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज
पर इतना जानते है कल वो जाता था कि हम निकले
ग़ज़ल उम्दा और बेहतरीन हुई है दिल से दाद हाज़िर है
सुन्दर ग़ज़ल दिनेश भाई , बाकी तकनीकी पक्ष का मुझे ज्ञान नहीं है , शिज्जू सर ने कह ही दिया है
दिल हमारा आईना आप हैं खरे पत्थर
बज़्म आपकी और हम टूट कर निकलते हैं....सुन्दर रचना ,बधाई आपको सादर !
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