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ज़िंदगी किस कदर इक सफ़र बन गयी
अनलिखी ये कहानी खबर बन गयी
बात छोटी सही सबके मुह जो चढ़ी
बात खींची गयी फिर रबर बन गयी
राह चलते हुये बज उठी सीटियाँ
सादगी कामिनी की ज़हर बन गयी
बेवफाई मिली आग दिल में जली
बेअदब आज मेरी नज़र बन गयी
चाह हमने रखी रोशनी की अगर
आरज़ू ही हमारी कबर बन गयी
ईश्क की इक नज़र कैद में जो मिली
हथकड़ी टूटकर इक तबर बन गयी
निधि
(मौलिक और अप्रकाशित)
तबर : कुल्हाड़ी के ऊपर का हिस्सा जो चीजों को काटता है
Comment
चाह हमने रखी रोशनी की अगर
आरज़ू ही हमारी कबर बन गयी
बहुत ख़ूब! ढेरों बधाईयां!
बात छोटी सही सबके मुह जो चढ़ी
बात खींची गयी फिर रबर बन गयी
थोड़े में ज़्यादा कहना इस कला में आप भी निखर रहीं हैं |सुंदर अभिव्यक्ति
बढ़िया गजल आ० निधि जी .
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