चंद लफ़्ज़ों के लिये दूरियां बढती चली गयी
डोर बनी थी कड़वाहट की बस कसती चली गयी
रंग भरे थे ख्वाब उसके, मंजिल तलक था जाना
राह उसकी बस लाल रंग में बदलती चली गयी
खुशियाँ ही चाहती थी वो अपनों की आँखों में
कालिख क्यों उनके चेहरे बिखरती चली गयी
जीना ही तो चाहती थीं न वो दिलों में बसकर
बेटियाँ तो तस्वीर बनकर लटकती चली गयी
चोटियों पर पहुँचने का अरमान रखा उसने
इच्छायें दायरों में ही "निधि" बंधती चली गयी
निधि
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
Dhanyawad जवाहर जी.. आपने सही कहा राहें कठिन हैं .. और आगे बढ़ना होगा ..
आदरणीया आपने एक महिला की जज्बात को रखने की कोशिश की हैं ... पर मैं कहूँगा कि रास्ते कठिन हैं, पर बिना कांटे के गुलाब तो दिखा - आज ही सुभाष चन्दर ने महिलाओं की सभा में संबोधित करते हुए कहा था ... सादर!
डॉ विजय जी सच कहा .. रचना अधूरी है अभी ..
पिछले दिनों आपकी एक प्रस्तुति आयी थी. अच्छा लगा था. सुधीजनों का उत्साहवर्द्धन प्रभावी हो. द्विपदी को ग़ज़ल विधा का स्वरूप दें एवं तदनुरूप प्रयास करें.
विश्वास है, आपका अभ्यास सतत हो चला होगा.
शुभेच्छाएँ
आदरणीया निधि जी , सुन्दर भाव अभिव्यक्ति हुई है , हार्दिक बधाइयाँ ॥
आदरणीय शिज्जू जी .. सुनील जी आभार आपका
आदरणीय निधि जी भावभिव्यक्ति बहुत अच्छी है बधाई आपको
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