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ग़ज़ल - खबर बन गयी

२१२ २१२ २१२ २१२

ज़िंदगी किस कदर इक सफ़र बन गयी

अनलिखी ये कहानी खबर बन गयी

 

बात छोटी सही सबके मुह जो चढ़ी

बात खींची गयी फिर रबर बन गयी

 

राह चलते हुये बज उठी सीटियाँ

सादगी कामिनी की ज़हर बन गयी

 

बेवफाई मिली आग दिल में जली

बेअदब आज मेरी नज़र बन गयी

 

चाह हमने रखी रोशनी की अगर

आरज़ू ही हमारी कबर बन गयी

 

ईश्क की इक नज़र कैद में जो मिली

हथकड़ी टूटकर इक तबर बन गयी

निधि 

 (मौलिक और अप्रकाशित) 

तबर : कुल्हाड़ी के ऊपर का हिस्सा जो चीजों को काटता है 

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Comment

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Comment by Hari Prakash Dubey on March 26, 2015 at 9:22am

आदरणीया निधि जी , बहुत बढ़िया, सुन्दर रचना पर बधाई आपको ! सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 25, 2015 at 10:43pm

आदरणीया निधि जी , ग़ज़ल बहुत खूब सूरत कही है आपने , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ॥ आदरणीया राजेश जी की सलाह क़ाबिले गौर है , खयाल कीजियेगा ॥

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 25, 2015 at 4:01pm

आदरणीया ..इस सुंदर ग़ज़ल के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 25, 2015 at 8:18am

बहुत खूब. आ. राजेश कुमारी जी की इस्लाह मूल्यवान है 
सादर 

Comment by Nidhi Agrawal on March 24, 2015 at 10:18pm

सभी मित्रों का बहुत बहुत आभार ..आपकी उपस्थिति के लिए, प्रेरणा और हौसला आफजाई के लिए 

आदरणीय समर साहब, जानती हूँ की सही शब्द कब्र है ..अभी तो बहर में लिखने की कोशिश कर रही हूँ और ऐसे में सब कुछ सही रखने में अपने आप को असमर्थ पाती हूँ  लेकिन फिर भी कोशिस करती हूँ सुधारने की 

लेकिन जहर तो ऐसे ही लिखा जाता है और बोला जाता है .. कभी जह्र नहीं सुना न पढ़ा .. फिर जैसे गुनिजन कहेंगे मान लुंगी 

आदरणीया दीदी .. रदीफैन दोष पर नज़र नहीं गयी थी .. बहुत बहुत धन्यवाद्.. कोशिश करती हूँ शब्दों को फेर कर लिखने की 

Comment by vijay nikore on March 24, 2015 at 10:50am

बहुत खूबसूरत खयाल । बधाई।

Comment by Shyam Narain Verma on March 24, 2015 at 10:00am
उम्दा गज़ल के लिए ढेरों मुबारकबाद ....
Comment by Samar kabeer on March 23, 2015 at 10:47pm
मोहतरमा निधि साहिबा,आदाब,बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने,बधाई स्वीकार करें, लेकिन इन अशआर में क़ाफ़िये का इस्तेमाल ग़ज़ल के क़ायदे के मुताबिक़ नहीं है:-

(1)"राह चलते हुये बज उठी सीटियाँ
सादगी कामिनी की ज़हर बन गयी"

(2)"चाह हमने रखी रोशनी की अगर
आरज़ू ही हमारी कबर बन गयी"

सही शब्द है "ज़ह्र"
इसी तरह सही शब्द है "क़ब्र"

इस क़ायदे के लिहाज़ से यह अशआर बह्र से ख़ारिज माने जाऐंगे,ग़ज़ल में आपकी उत्सुकता देखकर ही यह जानकारी दे रहा हूँ,कृपया अन्यथा न लें |
Comment by Dr. Vijai Shanker on March 23, 2015 at 9:56pm
सुन्दर प्रस्तुति, बधाई, सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 23, 2015 at 9:40pm

प्रिय निधि जी ,बहुत प्यारी ग़ज़ल लिखी है सभी शेर सुन्दर बने हैं ,मतला तो बहुत ही ज्यादा पसंद आया. 

बात छोटी सही सबके मुह जो चढ़ी

बात खींची गयी फिर रबर बन गयी--वाह्ह्ह्ह

आपकी ग़ज़ल का काफिया अर है तो जहर शब्द का मुझे भी संशय है

एक बात और आपको बताना चाहूंगी निधि जी ,आपके दूसरे ,चौथे  और छटे शेर में जुज्ब-ए- रदीफैन  दोष आ रहा है जिसको आप थोड़े से शब्दों के हेर फेर से दुरस्त कर लेंगी मुझे विश्वास है.फिलहाल  दिल से दाद कबूलें  

 

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