2212---2212---2212---2212 |
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देखो मुझे फिर ये कहो- क्या आज भी इंसान हूँ |
क्यों इस तरह जतला रहें मैं कब कोई भगवान हूँ |
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ईमान का ऐलान हूँ तूफ़ान का फरमान हूँ |
बरसों दबा के तू जिसे बैठा वही अरमान हूँ |
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दो पंछियों को पेड़ पर बैठे हुए देखा मगर |
हँसते नहीं रोते नहीं ये देखकर हैरान हूँ |
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इक शख्स जो भीतर मेरे बस मौन सा बैठा हुआ |
उस शख्स के किरदार से यारों बहुत हलकान हूँ |
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हर आदमी कहता यही पाया गया है आजकल |
मौका नहीं तो मैं ख़ुदा मौका मिला शैतान हूँ |
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अब छोडिये उस बात को, बातें बढ़े क्या फायदा |
माना चलो फाजिल तुम्ही मैं ही फ़क़त नादान हूँ |
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बस घर मेरा ताउम्र ही इस जिस्म पर तारी रहा |
दीवार दर मैं था कभी, अब तो फ़क़त दालान हूँ |
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Comment
दो पंछियों को पेड़ पर बैठे हुए देखा मगर |
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हँसते नहीं रोते नहीं ये देखकर हैरान हूँ...एक डा ल पर तोता बोले एक दाल पर मैना ..दूर होकर भी प्यार है पास होकर भी दूर ..दुखद है ..समाज का चित्रं करता शानदार शेर ...
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अब छोडिये उस बात को, बातें बढ़े क्या फायदा
माना चलो फाजिल तुम्ही मैं ही फ़क़त नादान हूँ
बस घर मेरा ताउम्र ही इस जिस्म पर तारी रहा
दीवार दर मैं था कभी, अब तो फ़क़त दालान हूँ
वाह आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी वाह .... खूबसूरत भावों से सजी इस खूबसूरत ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
अ० वामनकर जी
बहुत सुन्दर लिखा आपने .
अब छोडिये उस बात को, बातें बढ़े क्या फायदा |
माना चलो फाजिल तुम्ही मैं ही फ़क़त नादान हूँ |
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बस घर मेरा ताउम्र ही इस जिस्म पर तारी रहा |
दीवार दर मैं था कभी, अब तो फ़क़त दालान हूँ |
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बहुत खूब
दो पंछियों को पेड़ पर बैठे हुए देखा मगर |
हँसते नहीं रोते नहीं ये देखकर हैरान हूँ |
बहुत ख़ूब शेर हुए है आदरणीय ...सादर
दो पंछियों को पेड़ पर बैठे हुए देखा मगर
हँसते नहीं रोते नहीं ये देखकर हैरान हूँ
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