गरीब है
पर स्वाभिमानी बहुत है
सब्जी की ढकेल
शहर की कोलोनियों में
घुमाता है
जोर जोर से सब्जियों के
नाम की आबाज
लगाता है
आखिर में ले लो साहब
कहकर जरूर चिल्लाता है
कुछ आदतें हो गयी हैं
उस पर हावी
कल की सब्जियों को भी
कह जाता है ताजी
कुछ सब्जियाँ
पूरी बिक चुकी होती हैं
उनका भी नाम पुकार जाता है
बीच बीच में पानी के छींटों से
सब्जियों को सँवार जाता है
ऊँचे लोगों की नीची हरकतों को
बखूबी पहचानता है
लाखों कमाने वालों की
रुपये दो रुपये की चिक चिक
को जानता है
पाव सब्जी के बदले
चार बातें सुना जाते हैं
ये ऊँचे लोग
पता नहीं फिर भी क्यों कहाते हैं
ये ,ऊँचे लोग
माँ -बाबूजी ,भाई-भाभी
कोई तो नहीं रहता है इनके साथ
इसीलिये तो चार भिण्डियों से
बन जाती है बात
बडे लोगों की छोटी हरकतें
सहन कर जाता है वो
क्योंकि रोज माँ-बाबूजी की दवाई
लेकर घर जाता है वो
शाबाश !सब्जी वाले
हकीकत में तो बडे लोगों से बडा है तू
लाख-गरीब होकर भी
माँ-बाबूजी के साथ खडा है तू
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Hari Prakash Dubeyजी आभार
सुन्दर रचना आदरणीय उमेश कटारा जी ! बधाई
आदरणीय ANJU MISHRA जी आभार
आदरणीय pratibha tripathi जी आभार
सुंदर रचना !
आदरणीय बृजेश नीरज जी मैं आपके विचार से सहमत हूँ और मैं भी जिज्ञासू हूँ कि इस विचार पर कोई प्रबुद्ध जन मागर्दर्शन करें
आदरणीय बृजेश नीरज जी आभार अगर कविता को गद्य की तरह पढोगे तो कविता कविता न होकर गद्य जैसा ही लगेगी
जरूरत है कविता को कविता की तरह पढा जाये और गद्य को गद्य की तरह
आप कविता की तरह डूबकर पढें तो शायद आपको इस कविता में कविता नजर आजेये मित्र अन्यथा न लें मेरे विचार मैंने रख दिया है
इस मंच पर बहुत से गुणी और सुधीजन मौजूद हैं मेरा भी उनसे निवेदन है कि बृजेश नीरज जी की जिज्ञासा के बारे में विचार व्यक्त करें और मार्गदर्शन करें .....साभार
आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी बधाई
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