मुतकारिब मुसम्मन सालिम
१२२ १२२ १२२ १२२
तुम्हे आज प्रिय नीद ऐसी सुलायें
झरें इस जगत की सभी वेदनायें I
नहीं है किया काम बरसो से अच्छा
चलो नेह का एक दीपक जलायें I
गरल प्यार में इस कदर जो भरा है
असर क्या करेंगी अलायें-बलायें I
तुम्हारी अदा है धवल -रंग ऐसी
कि शरमा गयी चंद्रमा की कलायें I
जगी आज ऐसी विरह की तड़प है
सहम सी गयी है सभी चेतनायें I
नहीं याद करता शुभे अब तुम्हारी
हमी मौन रो लें तुम्हें क्यों रुलायें I
चलो आज ‘गोपाल’ नजदीक बैठो
हमीं जाम इस शाम तुमको पिलायें I
.
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आ0 दिनेश कुमार जी
बहुत आभार
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है जनाब बहुत ही सुंदरता निभाया है आपने। दिली दाद हाज़िर है।
प्रिय नजील भाई
आपका आभार. स्नेह .
आ० विजय सर !
सादर नमन .
आ० नीलेश जी
आप जैसे उस्ताद की संस्तुति मेरे लिए संतोष का विषय है . सादर .
आ० बुन्देली जी
आपका आभारी हूँ , कविराज . सादर.
आ० भंडारी जी /अनुज
आप पीठ थपथपाते है तो अच्छा लगता है . सादर.
आ० शिज्जू भाई
उस्तादों से संस्तुति का अपना ही मजा है .सादर .
आ० समर कबीर साहेब
मैं तो अभी सीख रहा हूँ .आपने इतना बड़ा आशीर्वाद देदिया . सादर.
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