चलो
लौट चलो
फिर उसी झील के किनारे
जहां आज तक
लहरों पे चाँद मुस्कुरता है
किनारों की कंकरियां
झील में सुप्त अहसासों को
जगाने के लिए आतुर हैं
वो शिला जिस पर बैठ कर
हमने दृग स्पर्शों से
मौनता का हरण किया था
आज एकान्तता में
उन्ही मधु पलों को जीने के लिए
कसमसा रहा है
हाँ और न के अंतर्द्वंद से
स्वयं को निकालो
प्रणय पलों के स्पंदन से
यूँ आँख न चुराओ
लौट आओ
हम अपने अस्तित्व को
अमर पहचान देंगे
अपने पावन प्रणय को
जीवित रहने का अभयदान देंगे
मेरे मौन आग्रह को
अपनी अधखुली पलक से
लौट चलने की स्वीकृति दे दो
निर्जीव होती अभिलाषाओं को
जीने का अवसर दे दो
एक बार
बस एक बार फिर
अपनी खोई मुस्कराहट को
लौटाने का वादा कर लो
झील की लहरों पर
उदास चाँद से
बतियाने का वादा करलो
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी रचना पर आपके स्नेह का तहे दिल से शुक्रिया। नेट व्यवधान के कारण प्रत्युत्तर में विलम्ब के लिए क्षमा चाहूँगा सर।
आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी रचना पर आपके स्नेह का तहे दिल से शुक्रिया। नेट व्यवधान के कारण प्रत्युत्तर में विलम्ब के लिए क्षमा चाहूँगा सर।
आदरणीय Mohan Sethi 'इंतज़ार' जी रचना पर आपके स्नेह का तहे दिल से शुक्रिया। नेट व्यवधान के कारण प्रत्युत्तर में विलम्ब के लिए क्षमा चाहूँगा सर।
आदरणीय shree suneel जी रचना पर आपके स्नेह का तहे दिल से शुक्रिया। नेट व्यवधान के कारण प्रत्युत्तर में विलम्ब के लिए क्षमा चाहूँगा सर।
आदरणीय Sushil Sarna जी इस सुन्दर प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई
भावपूर्ण रचना
आदरणीय Sushil Sarna जी लौट आने का मौन आग्रह अच्छा है ...बधाई ..सादर
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