धरती रोती है ,मैंने देखा है धरती रोती है
छीज रहा उसका आँचल
बिखर रहा सारा संसार
त्रस्त कर रही उसको निस दिन
उसकी ही मानव संतान
विगत की तेजोमय स्मृतियाँ
वर्तमान में तीव्र विनाश
आगत एक भयावह स्वप्न
भग्न - बिखरती आस
पशु - पक्षी जीव वनस्पति
सब ही हैं उसकी संतति
पर मानव ने मान लिया
धरा को केवल अपनी संपत्ति
शक्ति मद में भूल गया
वह नहीं अकेला अधिकारी
उसके हित में ही विधि ने
रची नहीं सृष्टि सारी
वह ज्ञानी है बुद्धिमान है
धरती का संरक्षण करता
उसके सब संसाधनों का
सबमें समुचित वितरण करता
पर सारी सीमा लाँघ गयी
मनुजों की अनियन्त्रित लिप्सा
धरती का सीना चीर - खोद
हर सम्पदा पाने की ईप्सा
कंक्रीटों के विपिन उगाये
नदियाँ सोखी खींचा भूजल
ज़हर बुझे सयंत्र लगाकर
क्षत - विक्षत कर डाले वन
अपने श्रेष्ठ होने की जिम्मा
कहाँ निभा पाए हैं हम
समृद्ध धरा जो प्रभु ने दी
कहाँ बचा पाए हैं हम
मानव ने हाहाकार मचा दी
धरिणी के सुन्दर मधुबन में
कुछ स्पंदन शेष बचे हैं
अब अवनी के जीवन में
गत - क्षत यौवन के अवशेषों पर
कृशकाय , तिरस्कृत अवसादित
विगलित तन बोझिल मन ले
चुपचाप अकेले रोती हैं
धरती रोती है ,मैंने देखा है धरती रोती है
मौलिक /अप्रकाशित
Comment
आदरणीया तनूजा जी धरती की वेदना को अभिव्यक्त करती सार्थक कविता पर हार्दिक बधाई
भैया आशा करती हूँ कि हम सबको आपकी कोई रचना भी शीघ्र ही पढ़ने को मिलेगी
बहुत बहुत आभार भैया एवं धन्यवाद कृष्णा मिश्रा जी
वाह सुन्दर सार्थक सन्देश लिए रचना पर आपको बधाई आदरणीया तनुजा ज़ी!
प्रोत्साहन के लिए हार्दिक धन्यवाद जितेन्द्र जी
इंसान जो कि स्वार्थ से परिपूर्ण आज में, भगवान् बन बैठा है उसने धरती को अथाह वेदनाएं दी है. धरती रोती है. बहुत सुंदर भावपूर्ण पंक्तियाँ ,आदरणीया तनूजा जी. हार्दिक बधाई स्वीकारें.
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