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कब मोह दिखाती है सरकार किसानों से
मतलब तो उसे है बस दो चार दुकानों से
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रिश्तों की कहाँ कीमत वो लोग समझते हैं
है प्यार जिन्हें केवल दालान मकानों से
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वो मान इसे लेंगे अपमान बुजुर्गी का
तकरार यहाँ करना बेकार सयानों से
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कदमों को मिला पाए कब साथ नयों का हम
कब यार निभाई है तुमने भी पुरानों से
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उस रोज यहाँ होगा सतयुग सा नजारा भी
जिस रोज चलाओगे शासन को विधानों से
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मत शोर मचाओ बस दुश्मन से निपटने का
बाहर भी निकालो अब कुछ तीर कमानों से
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क्यों यार बहाते वो हर घर में नदी खूँ की
गर जाग गया होता अंतस जो अजानों से
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है खूब समझती वो खामोश भले ही है
जनता न बहलेगी हर बार बहानों से
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गर बात है कहनी कुछ काबू में जुबाँ को रख
अपने भी पराए बन जाते हैं जुबानों से
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
मत शोर मचाओ बस दुश्मन से निपटने का
बाहर भी निकालो अब कुछ तीर कमानों से बहुत खूब सर!
है खूब समझती वो खामोश भले ही है
जनता न बहलेगी हर बार बहानों से सुन्दर!
गर बात है कहनी कुछ काबू में जुबाँ को रख
अपने भी पराए बन जाते हैं जुबानों से अहा क्या कहने!
सुन्दर गज़ल पर ढेरों दाद और मुबारकबाद आ० धामी सरजी!
अपने भी पराए बन जाते हैं जुबानों से...बहुत ख़ूब जनाब ....आदरणीय Laxman Dhami जी..बधाई
वाह वाह बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है दिल से दाद हाज़िर है.
बहुत सटीक तंज़ करती हुई ग़ज़ल पेश की है ..बहुत बहुत बधाई
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