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अब और सब्र का तू मेरे इम्तिहाँ न ले
मेरी ज़मीं न छीन मेरा आसमाँ न ले
है मुख़्तसर ज़मीन तमन्नाओं की फ़क़त
ऐ बेरहम नसीब यूँ मेरा जहाँ न ले
कम रख ज़रा तू अपनी रवानी को ऐ हवा
इतना रहम तो कर कि मेरा आशियाँ न ले
जज़्बात से न बाँध मुझे ऐसे हमनशीं
मत रोक लफ़्ज़ मेरे यूँ मेरी ज़बाँ न ले
कायम है कायनात शजर के वुजूद से
खुद को ही बेवुजूद न कर अपनी जाँ न ले
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत ही बेहतरीन! और लाजव़ाब गज़ल के लिए ढ़ेरों मुबारकबाद आदरणीय शिज्जू सरजी!
है मुख़्तसर ज़मीन तमन्नाओं की फ़क़त
ऐ बेरहम नसीब यूँ मेरा जहाँ न ले हसरत-ए-तामीर! क्या कहने इस शेर के!
जज़्बात से न बाँध मुझे ऐसे हमनशीं
मत रोक लफ़्ज़ मेरे यूँ मेरी ज़बाँ न ले वाह! वाह!
कायम है कायनात शजर के वुजूद से
खुद को ही बेवुजूद न कर अपनी जाँ न ले बेहद उम्दा! लाजव़ाब! इस शैर पर विशेष बधाईयां!
बहुत खूब --रंग-ए-शिज्जू ..क्या कहने
वाह...लाजबाव बधाई आपको
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