"माँ, इस एफ.डी.आर. में भी नॉमिनी मुझे ही रखना, भैया सम्भाल नहीं सकता|"
"बेटे, मैं बराबर बांटना चाहती हूँ| उसको देख, तेरे पिताजी के देहांत के बाद उसने खुदके हक की सरकारी नौकरी तुझे दे दी और खुद प्राइवेट नौकरी में धक्के खा रहा है|"
"यही बात तो उसको बेवकूफ साबित करती है|"
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
ओह !!
लघुकथा ने एकबारग़ी झकझोर दिया..
बधाइयाँ, आदरणीय
सुन्दर लघुकथा हुयी है,बधाई आदरणीय चंद्रेश जी!
आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी, आदरणीय सविता मिश्रा जी, आदरणीय डॉ. गोपाल नारायण जी सर, आदरणीय पंकज जोशी जी सर, आदरणीय शिज्जू "शकूर" जी आप सभी का तहे दिल से आभार, रचना को पसंद करने के लिए और अपने अमूल्य सुझाव देने के लिये
आदरणीय गणेश जी बागी सर, आपकी उपस्थिति और प्रोत्साहन तो बिरलों को ही मिलता है| आपका हृदय से आभारी हूँ..
आदरणीय भाई जीतेन्द्र जी हार्दिक आभार आपका !!
बहुत खूब आदरणीय चंद्रेशजी आजकल स्वार्थ हर दिल पर हावी है बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिये
सुंदर , चंद्रेश जी
आ० चंद्रेश जी
आख़री वाक्य इस कहानी में अनावश्यक है i यह नहीं होता तो भी कथा का वही अर्थ निकलता और शीर्षक हो जाता 'हक़' सादर ,
बहुत खूब
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