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आहत दर्प का संयत लाक्षणिक प्रयोग !
साधु ! मन झूम गया भाई रवि प्रकाश जी..
कब सोचा था यूँ भी होगा-
जिनको मैंने ये कह कर दुत्कारा था-
-"जाओ,तुम हो एक पराजित मन के हित निर्मित
केवल छलना और भुलावा,
कुछ भी तो तुम में सार नहीं है; ... इन पंक्तियों से प्रारम्भ हुआ उन्मुक्त दर्प
"और डगर है क्या कोई सर्वस्व समर्पण से हट कर?"
मन ये भी पूछ न पाएगा,
निरुपाय वही खो जाएगा... .... जैसी पंक्ति पर निढाल हो जाता है.
भाई, आपकी इस कविता मुग्ध कर गयी. कविता में प्रवाह है, धार है, सार है, संसार है !
अतिशय बधाइयाँ और हार्दिक शुभकामनाएँ
रवि प्रकाश जी
अच्छा प्रयास है .
आदरणीय प्रकाश जी इस सशक्त रचना पर हार्दिक बधाई
इन पंक्तियों की लयात्मकता ने मुग्ध कर दिया-
कब सोचा था यूँ भी होगा-
वही तुम्हारी आँखें
भोर,दुपहरी,रातें बन कर
हर खिड़की से झाँकेंगी,
बादल,बूँदें,बिजली,बरखा हो कर
मेरे तन का सारा कुंदन पिघलाएँगी
सारा चंदन साँसों का
महकाएँगी;
"और डगर है क्या कोई सर्वस्व समर्पण से हट कर?"
मन ये भी पूछ न पाएगा,
निरुपाय वही खो जाएगा।
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