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ग़ज़ल -- खिड़कियों से झाँकता क्या है ( गिरिराज भंडारी )

1222     1222      1222      1222 

अगर दिल साफ है, आ सामने, कह मुद्दआ क्या है

खुला दर है तो फिर तू खिड़कियों से झाँकता क्या है

 

यहाँ तू थाम के बैठा है क्यूँ अजदाद के क़िस्से
बढ़ आगे छीन ले हक़ , गिड़गिड़ा के मांगता क्या है


अगर भीगे बदन के शेर पे इर्शाद कहते हो

तो फिर बारिश में मै भी भीग जाऊँ तो बुरा क्या है

 

जो पुरसिश को छिपाये हाथ आयें हैं उन्हें कह दो

मुझे निश्तर न समझाये , कहे ना उस्तरा क्या है

 

दुआयें जब ख़ला में हाथ उठ जाने से होतीं हैं

कोई पत्थर से लिपटे और मांगे तो ख़ता क्या है

 

मुझे अल्फाज़ के मानी न समझाओ , मेरे यारों

ज़रा चहरा भी दिखलाओ, मैं पढ़ तो लूँ, लिखा क्या है

 

मैं उनसे बात उनकी ही ज़बाँ में बोल आया था

न समझें तो, उसी को फिर कहे से फ़ाइदा क़्या है

 

किसी के रास्ते को यूँ ग़लत कहने से है अच्छा

चलो तुम साथ में, या फिर कहो सच रास्ता क्या है

************************************************** 

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2015 at 12:44am

क्या ग़ज़ल हुई है.. लाज़वाब !
दाद कुबूल कीजिये आदरणीय गिरिराजभाईजी

इस शेर पर विशेष दाद --
मैं उनसे बात उनकी ही ज़बाँ में बोल आया था
न समझें तो, उसी को फिर कहे से फ़ाइदा क़्या है

शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 1, 2015 at 10:41pm

लाजवाब.. बेमिसाल.. पुरअसर..  इस ग़ज़ल के हर शेर के लिये ढेरों दाद हाज़िर हैं 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 1, 2015 at 9:23pm

आदरणीय बड़े भाई  गोपाल जी ,  सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 1, 2015 at 9:22pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 1, 2015 at 9:06pm

अनुज

बहुत उम्दा .क्या बा त है .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 1, 2015 at 8:27pm

आदरणीय गिरिराज सर, बेहतरीन गज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 

मुझे अल्फाज़ के मानी न समझाओ , मेरे यारों

ज़रा चहरा भी दिखलाओ, मैं पढ़ तो लूँ, लिखा क्या है... बेहतरीन 

 

मैं उनसे बात उनकी ही ज़बाँ में बोल आया था

न समझें तो, उसी को फिर कहे से फ़ाइदा क़्या है........ वाह वाह 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 1, 2015 at 8:13pm

आदरणीय विजय भाई , गज़ल की सराहना और एक शे र को कोट करने के योग्य समझने के लिये आपका आभारी हूँ ॥

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 1, 2015 at 7:17pm
मुझे अल्फाज़ के मानी न समझाओ , मेरे यारों
ज़रा चहरा भी दिखलाओ, मैं पढ़ तो लूँ, लिखा क्या है
बहुत खूब , बधाई, आदरणीय गिरीराज भंडारी जी, सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 1, 2015 at 3:39pm

आ. नीलेश भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया । आ. समर भाई जी की बात पर ज़रूर गौर करूँगा । आपका आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 1, 2015 at 3:38pm

आदरणीय समर कबीर भाई , ग़ज़ल की सराहना और उचित सलाह के लिये आपका आभारी हूँ , आवश्यक सुधार अवश्य कर लूंगा ॥ ऐसे ही स्नेह बानाये रखें ।\

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