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चली गई मेरी मंज़िल कहीं पे चल के क्या
या रह गया मैं कहीं और ही बहल के क्या
वहाँ पे गाँव था मेरा जहाँ दुकानें हैं
किसी से पूछता हूँ , देख लूँ टहल के क्या
असर बनावटी टिकता कहाँ था देरी तक
वही पलों में तुम्हें रख दिया बदल के क्या
हरेक हाथ में पत्थर छुपा हुआ देखा
ये गाँव फिर से रहेगा कभी दहल के क्या
मेरा ये घर सही मिट्टी, मगर ये मेरा है
मुझे न पूछ थे अरमाँ कभी महल के क्या
मुझे लगा कि अब , सूरज उदास रहता है
चलो तो पूछें, वो रोता रहा था ढल के क्या
बहक ही जाने दो मुझको, कि अब बचा क्या है
ये लम्हें आखिरी हैं अब करूँ सँभल के क्या
परों का साथ नहीं है जिसे उड़ानों में
तुम्हीं कहो वो करे फर्श पे उछल के क्या
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नरेन्द्र भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय वीनस भाई , गज़ल पर आपकी गरिमामय उपस्थिति के लिये अपका आभारी हूँ । जिस मिसरे पर आपने गौर करने को कहा है वो वास्तव मे बे बह्र हो गया है , मै उसे सुधार कर फिर से लिख रहा हूँ --- मुझे लगा है ये , सूरज उदास रहता है ।
आदरणीय वीनस भाई , बाक़ी बातें कल , कह के आपने इशारा किया है , कहन में जो भी कमियाँ हों ज़रूर बताइयेगा , अब इसी कमी के पीछे लगा हुआ हूँ , और लगना पड़ेगा भी , मुझे मालूम है अभी बहुत सीखना बाक़ी है । आपका पुनः आभार ॥
आ0 भंडारी भाई जी, गजब की गज़ल हुई है. दाद कुबूल करे. सादर
अनुज भाई
वाह क्या बात है , खूब सुन्दर ग़ज़ल ,
इस ग़ज़ल पर शेर दर शेर बहुत कुछ कहा जा सकता है ...
मगर अभी बस यही कहना है कि इस मिसरे पर फिर से गौर फरमा लें ...
मुझे लगा कि अब , सूरज उदास रहता है
बाकी बातें कल करूंगा ...
आदरणीय विजय भाई , सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ । आपने सही कहा ' के क्या ' रदीफ चुन के मै भी बहुत मुश्किल मे फँसा महसूस कर रहा था , बहुत समय लगा है ग़ज़ल पूरी होने में । आपका पुनःआभार ।
आदरणीय उमेश भाई , हौसला अफज़ाई का बहुत शुक्रिया ॥
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