" अरे रामू , तुम वापस कब आये , फिर से घर का काम करोगे "?
" क्या करता साहब , बेटा तो अपनी नौकरी पर चला जाता था और रात देर से लौटता था "।
" तो क्या , आराम से घर पर रहते , बहू और बच्चों के साथ समय बिताते "।
" अब क्या कहूँ साहब , आप कम से कम हमें नौकरों जैसा तो समझते हो , पर बहू तो .."!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी , आपके शेर के लिए धन्यवाद..
मैं आपकी इस लघुकथा को अपना एक शेर दे रहा हूँ -
घोर आपत्तियों के मौसम में
मौन तक आज मुखर लगता है
बहुत खूब आदरणीय !
बहुत बहुत आभार आदरणीय सुभ्रांशु पाण्डेयजी.
आदरणीय विनय जी,
मौन को इस हद तक मुखर बनाने के लिये बधाई..
सादर.
बिलकुल सही कहा आपने आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी , पोस्ट करने की जल्दी ही अक्सर कारण होती है इसकी | पुनः आभार.
विलम्ब हेतु क्षमा ,आदरणीय विनय जी. आपके संशोधन पश्चात लघुकथा में बहुत निखार आ गया है ,अक्सर हम शायद पोस्ट करने की आतुरता में भूल जाते है. मेरे साथ तो यही कारण है :-))
प्रस्तुति पर आपको पुन: बधाई आदरणीय विनय जी सादर!
धन्यवाद , सादर नमस्ते आदरणीय सविता मिश्रा जी..
बढ़िया कहीं आपने ..सादर नमस्ते
बहुत बहुत आभार आदरणीय कृष्ण मिश्रा जान गोरखपुरी जी .
वाह! सुन्दर लघुकथा पर बधाई आ० विनय जी!
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