‘आज तो लाला ने भी और मोहलत देने से साफ मना कर दिया । समझ नहीं आ रहा अब क्या होगा? बैंक की किश्तें, अगले महीने छोटी की शादी... इस बेमौसमी बरसात ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा ।’ साहूकार की दुकान से बाहर निकलते हुए परेशानी के आलम में वो अपने साथी से बोला
‘सब्र से काम लो भाई ! अब जो भगवान को मंजूर ... अरे ! उधर क्या करने जा रहे हो ... उस तरफ तो बाजार है ?’
‘एक रस्सी लेने...।’
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
गरीबों की अपनी ही व्यथा होती है | बहुत बहुत बधाई आदरणीय सर इस बेहतरीन कथा के लिए |
हाँ , गरीब चाहे कितना भी गरीब हो जाए ,रस्सी खरीदने के पैसे उसके पास जरूर होते है क्यूंकि हारे हुए वक़्त में सिर्फ ईमानदारी से साथ देता है। बहुत -बहुत बधाई आपको आदरणीय रवि जी इन सुपरहिट्स के लिए ।
रचना को अपना अमूल्य समय देने हेतु आपका बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सत्यनारायण पाण्डेय जी ।
श्रद्धेय सौरभ भाई जी आपकी उपस्िथती से अनुग्रहीत हूं। मार्गदर्शन करते रहें और स्नेह बनाएं रखें । आभार
आज के समय की ज़मीनी सच्चाई को बखूबी उभारा है आपने रवि भाईजी..
प्रस्तुत पर भले ही विलम्ब से टिप्पणी कर रहा हूँ, लेकिन इसे पढ़ गया था. हार्दिक बधाइयाँ.
समसामयिक सुंदर लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई आ. रवि प्रभाकर जी
समसामयिक सुंदर लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई आ. रवि प्रभाकर जी
रचना पर आपके सान्िनध्य व अनुमोदन से आपका कृतज्ञ हूं आदरणीय शुभ्रांशु भाई जी ।
धन्यवाद आदरणीय सविता मिश्रा जी ।
आदरणीय रवि जी,
सुन्दर कथा,
रस्सी ने किसानों की सारी हकीकत सामने रख दी है. रस्सी से अनाज का बोझा बांधते बांधते आज गले का फ़ंदा बांधने लगे हैं.
सादर.
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