गागा लगा लगा/ लल/ गागा लगा लगा
आवारगी ने मुझ को क़लन्दर बना दिया
कुछ आईनों ने धोखे से पत्थर बना दिया.
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जो लज़्ज़तें थीं हार में जाती रहीं सभी
सब जीतने की लत ने सिकंदर बना दिया.
.
नाज़ुक से उसने हाथ रखे धडकनों पे जब
तपता सा रेगज़ार समुन्दर बना दिया.
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एहसास सब समेट लिए रुख्सती के वक़्त
दीवानगी-ए-शौक़ ने शायर बना दिया.
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जो उस की राह पे चले मंज़िल उन्हें मिले
बाक़ी तो बस सफ़र ही मुकद्दर बना दिया.
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उसने हमें नवाज़ दिया ख़ुद उसी का घर
हमनें ये जिस्म पाप का गट्ठर बना दिया.
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कैसे मुजस्मासाज़ तुझे शुक्रिया कहूँ
कंकर था मैं तराश के शंकर बना दिया.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया सर
सराहूँ सियाराम या सराहूँ सीताराम को !..
ग़ज़ल वाह ! परिचर्चा वाह-वाह ! ..
यह अवश्य है कि अर्कान को कहने का ढंग मनमाना नहीं होता इसके प्रति आश्वस्त होलें. अरुज़ से सम्बन्धित बाद बाकी आपको भी समझ में आया होगा. यह अवश्य है कि अश’आर के निहितार्थ कमाल हुए हैं.
दाद कुबूल कीजिये, आदरणीय नीलेश भाई.
जी अवश्य...
इस विषय पर कोई पठन सामग्री हो तो उपलब्ध करवाइए. इससे लाभान्वित होना कौन नहीं चाहेगा.
सादर
फिर तो आप इस बहर के मूल वजन को जानिये और ज़िहाफ के समंदर में कूदिये और थोड़ा सा समझिये कि कैसे और कहाँ अर्कान टूट सकते हैं ...
हाँ आपको एक बात स्पष्ट कर दूं कि अरकान निश्चित सेट में ही नहीं टूटता ....
आदरणीय वीनस जी
आपने जो अरकान बताए हैं वो यूँ हुए
गागाल / गालगाल / लगागाल / गालगा यानी
आवार/ गी ने मुझ को / क़लन्दर /बना दिया ..या
जो उस की/ राह पे च/ ले मंज़िल उ/ न्हें मिले ...इसे लय में गुनगुनाने पर बीच के 11 के पहले और बाद में एक नेचरल पॉज आता है.एक ज़ोर आता है
आवारगी ने मुझ /को क़/लन्दर बना दिया .. या
जो उस की राह पे /चले /मंज़िल उन्हें मिले
गागाल / गालगाल / लगागाल / गालगा और
गागा लगा लगा/लल / गागा लगा लगा ...
गुनगुना के देखिये ..आप स्वयं आश्वस्त हो जाएँगे
फिर अरकान से लय सिर्फ इसीलिए बनती है कि निश्चित सेट ..निश्चित अंतराल में रिपीट होता है
गागाल / गालगाल / लगागाल / गालगा ...इसमें कोई अरकान एक जैसा नहीं है
गागा लगा लगा (एक सेट)/ लल (ल के दो सेट)/ गागा लगा लगा (दूसरा सेट)...
निलेश भाई एक ही बात को बार बार कहने का कोई मतलब नहीं बनता ...
और ये बात भी सही है कि ग़ज़ल में क्या कहन और भाव रखना है इसका अंतिम निर्णय आपको ही लेना है ....
हवाला दे कर ही अदब की दुनिया में बात राखी जाती है मगर "मारो कहीं लगे वहीं" के लिए "मारो घुटना फूटे आँख" का हवाला देना तो उचित न होगा न ...
अथ में तो आप ही निश्चित कीजिये, मुझे को लगा मैंने वैसी आलोचना/समीक्षा की ..
मगर कहन और भाव की बात अलग है
शाइर लफ्ज़ और बहर के आरकान को लेकर आपका हठ उचित नहीं है ...
और हाँ ..
जो तीन अशआर आपने कोट किये हैं उन तीनों के दोनों मिसरों में खूब रब्त है ... कोई दो लख्त नहीं है
NICEE MTIRA
धन्यवाद आ. वीनस जी ...
मेरा स्पष्ट मत है कि 12/22/11 आदि उस लय का गणीतिय एक्सप्रेशन मात्र है जिसमे कोई भी रचना गुनगुनाई जाती है. ये तर्कसंगत भी है. तबले की..ताली और ख़ाली से लय बनती है ...
मानक तो २२१/१२२ आदि भी नहीं है ..फिर तो फाइलातुन ..फउलुन आदि में गिनना ही श्रेष्ठ होगा ...
धडकनों में बसाना तो संभव है ...यदि विशुद्ध भौतिक स्वरूप पर चर्चा हो तो 95% शायरी ख़त्म हो जाएगी क्यूँ कि शायरी अहसास का नाम है. ये पोएटिक लिबर्टी है ...
मगर धड़कन पे हाँथ नहीं रखा जा सकता--- जो किया नहीं जा सकता वही सब सोचने को शायद कविता कहते हैं. जहाँ न पहुँचे रवि वहां पहुँचे कवि . "जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है"
क्या सचमुच कभी आँखों से खून टपकते देखा है?
और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तिरी बातें अक्सर..जांनिसार अख्तर ."क्या यहाँ दिल पे हाथ रखा ,,वो भी बातों ने" बातों के हाथ उग आए क्या ?? मगर बस धड़कन पे हाँथ नहीं रखा जा सकता
शायर और शाएर पर मैं बहुत रिजिड नहीं हूँ लेकिन 'ब्राह्मण' का बिरहमन जायज़ होना भी खलता है . वैसे भी शायर और शाइर दोनों गलत हैं. शाएर सही उच्चारण है क्यूँ कि यहाँ ऐन के ऊपर वाला हिस्सा या हमज़ा जैसा चिन्ह इस्तेमाल होता है जो इ की ध्वनि कतई नहीं है.
कंकर और शंकर में छुपे भाव को पकड़ने में आप चूक रहे हैं शायद. कॉण्ट्राडिक्शन हमेशा अणु और ब्रह्माण्ड में होगा. कतरे और समुन्दर में होगा ..चट्टान और पहाड़ में नहीं होगा.
ईश्वर के हम पर इतने उपकार हैं कि जिनका शुक्रिया नहीं किया जा सकता. मानव योनी में जन्म से लेकिन बुद्धि देने तक और जीवन में सफल बनाने तक. ईश्वर ही वो शिल्पी या मुजस्मासाज़ है जो मुझ जैसे कंकर से भी छोटे (उसकी तुलना में) कण को इतना तराश रहा है, स्किल दे रहा है, पॉलिश कर रहा है कि मैं संसार में कुछ सकारात्मक कर पा रहा हूँ.
शायद आपने ये फीलिंग मिस कर दी है इस शेर तक आते आते.
उर्दू शायरी में महबूबा भी पुल्लिंग स्वरूप में कही जाती है तो क्या ये मान लेना चाहिए कि यहाँ सब अप्राकृतिक है??
और फिर जो किसी ने नहीं कहा वो मैं भी न कहूँ या जो कहा गया है सिर्फ वही कहूँ..ये तो उचित नहीं है. तमाम बातें लाखों बार कही गयी हैं..बस आप उन्हें क्या शब्द देते हैं वो महत्वपूर्ण है.
मतले के दोनों मिसरों में रब्त न होने की बात पर निवेदित है कि शेर तीन प्रकार के होते हैं
1) पहला मिसरा दूसरे से सीधा जुड़ा हो ..एक दूसरे के बिना दोनों अधूरे हो
हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम उन को खबर होने तक .. (यहाँ पहला मिसरा दूसरे के बिना अधूरा है)
.
2) दोनों मिसरे जुड़े हो लेकिन अपनी अपनी बात पूरी करते हों
दिल ही तो है न संग-ओ-खिश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ ..... दोनों मिसरे पूर्ण और स्वतंत्र हैं
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3) दोनों मिसरे असम्बद्ध हों और पूरी बात के कई मतलब निकलते हों
हर चंद मैं हूँ तूती-ए-शीरीं सुखन वले
आईना आह मेरे मुक़ाबिल नहीं रहा ....दोनों मिसरों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है ..
तीनो शेर ग़ालिब के हैं ..
ये तीसरा प्रकार शायरी में रहस्य पैदा करता है और जो ये सफलता पूर्वक लगातार कर पाता है वो 600 साल में एकमात्र ग़ालिब बन जाता है
यू tube की ये लिंक समय निकाल कर सभी ग़ज़ल सीखने वाले अवश्य सुनने ..
https://www.youtube.com/watch?v=jnmzgG54KWA
सादर
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई! |
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