२१२ २१२२ १२२२
गम नही मुझको तो फ़र्द होने पर (फ़र्द = अकेला)
दिल का पर क्या करूं मर्ज होने पर
उनको है नाज गर बर्क होने पर
मुझको भी है गुमां गर्द होने पर
चारगर तुम नहीं ना सही माना
जह्र ही दो पिला दर्द होने पर
अपनी हस्ती में है गम शराबाना
जायगा जिस्म के सर्द होने पर
डायरी दिल की ना रख खुली हरदम
शेर लिख जाऊँगा तर्ज होने पर
तान रक्खी है जिसने तेरी चादर
भूलता क्यूँ उसे अर्श होने पर
माल साँसों की, कर हर घड़ी सिमरन
ठगना क्या?वख्त-ए-मर्ग होने पर
जुर्म उसका होना अन्नदाता था
लटका सूली दिया कर्ज होने पर
बात सच्ची कहूँ सुन मिले चाहे
बद्द्दुआ लाख़ ही तर्क होने पर
मुफलिसी का तेरी तू है जिम्मेवार
है गुनह रहना चुप फ़र्त होने पर (फ़र्त = ज्यादती/जुल्म)
रात सोलह दिसम्बर बारह दिल्ली
शर्मसार आदमी मर्द होने पर
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मौलिक व् अप्रकाशित (c) ‘जान’ गोरखपुरी
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Comment
आ० जितेन्द्र सर जर्रानवाजी के लिए हार्दिक आभार!
वाह! आदरणीय कृष्णा जी, क्या बेहतर अशआर कहे है आपने
जुर्म उसका होना अन्नदाता था
लटका सूली दिया कर्ज होने पर
बात सच्ची कहूँ सुन मिले चाहे
बद्द्दुआ लाख़ ही तर्क होने पर ...... विशेष बधाई कुबुलें ,यह शे'र बहुत पसंदीदा हुए
गम नही मुझको तो फ़र्द होने पर
दिल का पर क्या करूं मर्ज होने पर
मतला दरअस्ल यूँ हुआ था>>>
गम नही मुझको तो फ़र्द होने पर
दिल का पर क्या करूं दर्द होने पर ...गज़ल में मत्ले में काफ़िया फ़र्द और दर्द लेने पर....बाकि के शेर में काफ़िया गर्द,सर्द,मर्द, यानि र् के साथ द पर समाप्त होने वाले शब्द ही केवल हमकफिया होते!इस स्थिति से बचने के लिए मतले में काफिया फ़र्द और मर्ज
लिया..जिस पर मुझे भी संदेह था...और इसीके निवारण/मार्गदर्शन हेतु ही यहाँ गजल प्रस्तुत की है....
मेरे मन में जो प्रश्न है निवारण हेतु यहाँ लिख रहा हूँ मार्गदर्शन निवेदित है:-
आ० तिलक सर के लेख से>>
''मूल प्रश्न यह है कि काफि़या निर्धारित कैसे हो सकता है और इसमें तो कोई विवाद नहीं कि काफि़या स्वर-साम्य का विषय है न कि व्यंजन साम्य का। कुछ ग़ज़लों में जो व्यंजन-साम्य प्रथमदृष्ट्या दिखता है वह वस्तुत: स्वर-साम्य ही है और व्यंजन के साथ 'अ' के स्वर पर काफिया बनने के कारण व्यंजन-साम्य दिखता है''
इसी संदर्भ मे उदाहरणत: आदरणीय वीनस सर के लेख से - हवा, मिला को यदि ग़ज़ल में काफ़िया के लिए प्रयोग करते हैं तो अंतिम व्यंजन अलग अलग व, ल होने के कारण केवल स्वर का साम्य है इसलिए आगे के अशआर में ऐसे शब्द ले सकते हैं जिसमें केवल "आ" स्वर को निभाया गया हो जैसे - नया, चुका, मिला, किया आदि| आ की मात्रा के पहले कोई भी व्यंजन हो सकता है और उसके पहले कोई भी स्वर हो, कोई फर्क नहीं पड़ता !
१)मेरा प्रश्न यह है कि यदि "आ" स्वर को निभाने दोष क्यों नही है जबकि हर्फे रवि यहाँ भी अलग अलग है! 'अ' स्वर मानकर निभाने पर दोष क्यों हुआ??क्या केवल दीर्घ होने के कारण??
२)हवा, मिला काफिया लेने पर आ की मात्रा के पहले कोई भी व्यंजन हो सकता है और उसके पहले कोई भी स्वर हो, कोई फर्क नहीं पड़ता ! यह छूट भी मिल गयी....जबकि मक्ते में मुश्किल के साथ बादल काफिया लेना गलत हुआ? जबकि अंत में ल्+अ हर्फे रवी का साम्य भी है?
आ० निलेश सर!,आ० इन्तजार सर! आ० भाई केवल प्रसाद जी!, आ० समर सर! आ० वीनस केसरी सर! आ० सुशील सरना जी
आप सभी का गजल पर मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार!!
गम नही मुझको तो फ़र्द होने पर
दिल का पर क्या करूं मर्ज होने पर
वाह आदरणीय बहुत सुंदर भावों की ग़ज़ल बनी है। हार्दिक बधाई
गम नही मुझको तो फ़र्द होने पर
दिल का पर क्या करूं मर्ज होने पर
बाकी सब तो बाद की बात ...
इस मतले में कवाफ़ी क्या ले बैठे ???
हर्फे रवी क्या है ?
अर्थात काफिया के शब्दों की सम्तुकान्तता कहन गयी ?
फ़र्द और मर्ज में हलंत र तो द और ज के पहले आएगा न ...
फ र् द
म र् ज़
और हाँ अरकान भी सही कीजिये ... २१२ / २१२ / २१२ / २२
आ0 जान भाई जी, गज़ल तो दमदार हुई है. दाद कुबूल करे. किंतु..काफिये में कुछ संदेह हो रहा है. सादर
वाह वाह क्या क्या कह दिया ...प्रभावी प्रस्तुति (ग़ज़ल की तकनिकी का मुझे इल्म नहीं )...सादर
रात सोलह दिसम्बर बारह दिल्ली
शर्मसार आदमी मर्द होने पर
अक्षर काफ़िया दोषपूर्ण है .
सादर
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