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" साहब , पइसा जमा करना है , पर्ची नाहीं दिखत है | मिल ज़ात त बड़ा मेहरबानी होत ", डरते डरते उसने कहा |
" अब केतना पर्ची छपवायें हम लोग , पता नाहीं कहा चुरा ले जाते हैं सब ", बड़बड़ाते और घूरते हुए हरिराम स्टेशनरी रूम में घुसे | थोड़ी देर बाद जमा पर्ची लाकर उसके सामने पटक दिया और बोले " बस एक ही लेना , कुछ भी नहीं छोड़ते लोग यहाँ "|
पूरे गाँव को पता था , हरिराम के व्यवहार के बारे में लेकिन सब झेल जाते थे | एक ही तो शाखा थी बैंक की वहां और सबको वहीँ जाना होता था | एकाध ने मैनेजर से शिकायत की लेकिन उलटे वो उन्ही पर भड़क गया | उसे पता था की वो तो कम ही समय रहता है बैंक में , ज्यादातर काम तो हरिराम ही निपटा देता है | शायद उसमे हिम्मत भी नहीं थी हरिराम को बोलने की |
खैर उसने पर्ची भरी और जमा करने काउंटर पर पहुंचा | रोकड़िया महोदय नदारद थे और उसकी हिम्मत नहीं थी कि किसी से पूछे | पहले से खड़े कुछ लोगों ने बताया कि आधे घंटे से गायब हैं महोदय | खैर थोड़ी देर बाद वो पधारे और सबसे आगे खड़े व्यक्ति की पर्ची लेकर उसे डांटने लगे " पर्ची भी ठीक से नहीं भरते तुम लोग और चले आते हो हमारा सरदर्द बढ़ाने "| जैसे तैसे उसका नंबर आया , पर्ची पकड़ाते समय उसका दिल बुरी तरह घबराया हुआ था | रोकड़िया ने एक बार जमा पर्ची देखी और वापस फेंकते हुए बोला " अरे न तो शाखा का नाम लिखा और न हस्ताक्षर किया , अब क्या ये भी हम ही करेंगे "| उसने पर्ची पर शाखा का नाम लिखा और नीचे हस्ताक्षर किया और डरते हुए फिर पर्ची रोकड़िया की तरफ बढ़ाई |
एक बार फिर रोकड़िया महोदय गायब थे , शायद पान खाने का समय हो गया था उनका | उसके सामने इंतज़ार करने के सिवा कोई चारा नहीं था | वापस आने पर एक बार नोट हाँथ में लेकर देखते और एक बार उसको | उसका दिल तो ऐसे धड़क रहा था जैसे उसने खुद नक़ली नोट छाप के दिया हो , लेकिन शुक्र था कि रोकड़िया महोदय ने बिना नुक़्ता चीनी किये पैसे को ले लिया और आधी पर्ची फाड़ के उनको पकड़ा दिया | अब वो वापस मुड़ा और पासबुक में इंट्री कराने के लिए दूसरे काउंटर पर पहुंचा |
काउंटर बंद था , कोई नहीं था वहां और हरिराम ने दूर से ही चिल्ला कर बताया " कल आना , आज नहीं होगी इंट्री ", और वो थके क़दमों से बैंक के बाहर निकल गया | बैंक के गेट पर लिखा स्लोगन " हम ग्राहकों से हैं , ग्राहक हमसे नहीं है " उसका मज़ाक उड़ा रहा था |
" मौलिक एवम अप्रकाशित "

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Comment by विनय कुमार on May 27, 2015 at 12:10pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 27, 2015 at 2:05am

एक मंजर जो आम है. उसकी शब्दबद्ध होना पाठकीय आश्वस्ति तो ले ही लेता है..

प्रस्तुति हेतु हार्दिक शुभकामनाएँ

Comment by विनय कुमार on May 19, 2015 at 9:41pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी , दरअसल ये हक़ीक़त बयानी हो गयी है इसीलिए ऐसा हो गया | शुक्रिया आपके विचार रखने का..

Comment by विनय कुमार on May 19, 2015 at 9:39pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी..

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 19, 2015 at 3:52pm

आ0 , किसी बैंक का यह  नजारा तो है पर जिन लघ कथाओं के लिये  आप विख्यात है वैसे पञ्च इसमें नहीं हैं . सादर .

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 19, 2015 at 11:30am

एक बार बेंक में नौकरी लग जाने पर विशेषतः सरकारी बेंक में, आदतन यह कहने दिखाई देते है यह गाहक सेवा केंद्र नहीं है |

कहानी के माध्यम से सही चित्रण हुआ है |

Comment by Hari Prakash Dubey on May 19, 2015 at 12:25am

हा हा हा , सर  कैसी  बात कर दी  आपने ,,,,,,,,हा हा हा 

Comment by विनय कुमार on May 19, 2015 at 12:15am

बहुत बहुत आभार आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी , आशा है आप ने बुरा नहीं माना । 

Comment by विनय कुमार on May 19, 2015 at 12:14am

बहुत बहुत आभार आदरणीय श्याम नारायण शर्मा जी..

Comment by विनय कुमार on May 19, 2015 at 12:13am

बहुत बहुत आभार आदरणीय  जितेन्द्र पस्टारिया जी , सादर । 

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