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टपकती टोंटियाँ (लघु कथा)// शुभ्रांशु पाण्डेय

चटक धूप. आसमान में उड़ते-उड़ते गला सूख गया था. पानी की एक बूँद कहीं नजर नहीं आ रही थी. पानी या तो बोतलों में बन्द था या  वहाँ स्वीमिंग पूल में था , लेकिन स्वीमिंग पूल के ऊपर लगी जाली के कारण पाना सम्भव नहीं था.

इस प्रचंड गर्मी में सजे-धजे साफ़-सूथरे शहर में प्यास से व्याकुल चिडियों को खसर-खसर करते वो चापाकल, उनके किनारे की खुली नालियाँ, लगातार टपकती म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन की टोटियों की बहुत याद आ रहीं थी.

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by shree suneel on May 24, 2015 at 9:52am
हाँ! हाँ.. शहरों में सहूलियतें कम भी हुईं हैं आदरणीय. परिंदों के लिए भी, आम जन के लिए भी. अच्छी प्रस्तुति. बधाई आपको
Comment by विनय कुमार on May 22, 2015 at 9:53pm

बिलकुल सच लिखा आपने , वो टपकती टोटियां अब नहीं दिखती हैं | बधाई इस सुन्दर रचना हेतु 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 22, 2015 at 9:08pm

शुभ्रांशु जी आपने सही नब्ज पकड़ी i परिंदों की बात छोड़ दें  आज तो आदमी भी शहर में बिना पैसा खर्च किया पानी नहीं पा सकता i गनीमत है कि देहात में अभी इन्सानि त ज़िंदा है . सुन्दर रचना

Comment by Shyam Narain Verma on May 22, 2015 at 5:34pm
इस अच्छी लघु कथा के लिए बधाई, आदरणीय

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