गाँव में एक नयी बीमारी का प्रकोप फैला और लगातार कुछ बच्चों की मौत हो गयी । एक तरफ जहाँ लोग भयभीत थे वहीँ दूसरी तरफ ठाकुर के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी ।
अगले दिन उसके कोठी के पास अपनी कोठरी में रहने वाली अकेली विधवा को लोगों के हुजूम ने डायन कह कर गाँव से बाहर खदेड़ दिया ।
बच्चों की मौत का सिलसिला तो नहीं रुका लेकिन वो ज़मीन अब ठाकुर की थी ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी.
जी , बिलकुल सही कह रहे हैं आप आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी | ठाकुर तो सिर्फ प्रतीक है ऐसे लोगों का | बहुत बहुत आभार..
वाह! आदरणीय विनय जी. अक्सर प्रॉपर्टी के लिए यह हथकंडे अपनाना आम बात रही है. लघुकथा पर आपको बधाई
ये ठाकुर अब किसी जाति विशेष के प्रतिनिधि नहीं रह गये हैं. कल के शोषित किन्तु आज के नव-धनाढ्य भी उसी अश्लीलता से शक्ति-सामर्थ्य और सामंतवादी प्रदर्शन में लगे हैं.
प्रस्तुत लघुकथा के लिए शुभकामनाएँ.
बिलकुल सही कहा आपने आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी , बहुत बहुत आभार..
आदरणीय विनय जी,
जमीन हथियाने वाले गांव ही नहीं शहरों में भी होते है. परिस्थियों के अनुसार तरीका बदल जाता है. सुन्दर कथा.
सादर.
बहुत बहुत आभार आदरणीया कान्ता रॉय जी । बिलकुल सच कह रही हैं आप , सादर आभार..
बहुत बहुत आभार आदरणीय रवि प्रभाकर जी । आप जैसे सिद्धहस्त लघुकथाकार से प्रसंसा मिलना बहुत बड़ी बात है । आगे भी मार्गदर्शन करते रहिये.
चन्द पंक्ितयों में आपने ठाकुर की कुत्िसत मानसिकता की कलई खोल दी । अत्यंत प्रभावशाली व सारगर्भित लघुकथा हेतु आपको बहुत बहुत बधाई आदरणीय विनय भाई जी । लघुकथा विधा पर आपकी पकड़ बहुत प्रसन्न करती है । सादर
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