"रामकली कँहा जा रही है ? "
"अरे !जिज्जी कहूँ नई इताइ आ जा र्इ हो।"
"काय री रामकली जो माथों सुनो तोहरी बिंदी कहा गई री ?और मांग भी सुनी है?"
"अरे सपरो हतो सो गिर गई हुहे"।
" हे राम !जा जिज्जी तो और अबै सबरो भेद खुल जातो ।हम तो पेंशन लाने जो सब कर रहे हते।का होत है दो पल सुहाग छुड़ा के सरकार से पैसा लेबे में।"
और रामकली पति के साथ होते हुए भी सरकारी परित्यक्ता की पेंशन लेने चली जाती है।
बबिता चौबे शक्ति
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
परम् आदरणीय डॉ प्राची जी सौरभ पाण्डे जी वीर जी सादर नमन बास्तव में विधवा पेंशन ही है पर परित्यक्ता सहायता राशि और जॉब में कुछ आरक्षण है. उसके लिये मुझे शब्द नही मिल रहे थे सो क्षमा चाहूंगी पर मैने अपनी आँखों से ऐसा होते हुये देखा इसलिये मैने लिख दिया महोदय जी लेते तो दोनों है सरकारी योजनाओं का गलत तरीके से फायदा
आप सभी का आभार व् धन्यवाद
अच्छी लघु कथा कही है आ० बबिता जी
नैतिक पतन का ये स्वरुप भी.....
आपने बहुत सुन्दरता से विषयवस्तु को प्रस्तुत किया है, मेरा संशय भी परित्यक्ताओं को मिलने वाली सरकारी पेंशन पर ही है.
प्रस्तुत लघुकथा पर हार्दिक बधाई प्रेषित है
कथा का सार तो सन्न कर देता है. आज के समाज के नैतिक पतन की पराकाष्ठा को सुन्दरता से शब्दबद्ध किया गया है.
वैसे आदरणीय नीलेश जी ने सही सवाल उठाया है, जो अब भी अनुत्तरित है, आदरणीया बबिताजी, कि, पेंशन विधवाओं को मिलता है या परित्यक्ताओं को भी ?
इस लघुकथा के विन्यास केलिए शुभकामनाएँ ..
आदरणीय बबिता चौबे जी सुन्दर कथा ! सादर बधाई .....
// दो पल सुहाग छुड़ा के सरकार से पैसा लेबे में // कथा में ये पंक्ति आज के समाज में नैतिक मूल्य की और भी इशारा करता है !
अच्छी लघुकथा हुई है बधाई
अच्छी लघुकथा है
अच्छी कहानी है ..
परित्यक्ता पेंशन है या विधवा पेंशन ?
सरकारी मशीनरी में यह भी संभव है . अच्छी कथा .
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