१२१२/११२२/१२१२/११२
नया सफ़र भी पुराना रहा, नया न हुआ
मैं आदमी न हुआ और वो ख़ुदा न हुआ.
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सहर मलेगी अभी मुँह पे, रात के कालिख़
वो आफ़्ताब उछालूँगा जो हवा न हुआ.
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अजीब जात हूँ जो टूटकर पनपता हूँ
वगर्ना टूट के पत्ता कोई हरा न हुआ.
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ये कायनात कहाँ और ऐ बशर तू कहाँ
बड़ा समझने से ख़ुद को कोई बड़ा न हुआ,
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किसी चिराग़ सा मैं और आफ़्ताब सा वो
ये उस की सादा-दिली फिर भी आईना न हुआ.
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चलेगा साथ सफ़र में ये ज़िद रही उसकी
जो देखी धूप कड़ी, उस का हौसला न हुआ.
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करेगा ख़ुद पे भरोसा तो साथ देगा रब
बग़ैर अज़्म, कहीं कोई मोजज़ा न हुआ.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ मोहन सेठी जी
शुक्रिया आ. दिनेश जी
सहर मलेगी अभी मुँह पे, रात के कालिख़
वो आफ़्ताब उछालूँगा जो हवा न हुआ. क्या हौसला है
हर शेर उम्दा ..आपको हार्दिक बधाई आदरणीय नूर जी
//सहर मलेगी अभी मुँह पे, रात के कालिख़
वो आफ़्ताब उछालूँगा जो हवा न हुआ //. बेहतरीन ग़ज़ल हुई है , बधाई आदरणीय | "वगर्ना" सही शब्द है या वर्ना , मुझे स्पष्ट नहीं है.
अजीब जात हूँ जो टूटकर पनपता हूँ
वगर्ना टूट के पत्ता कोई हरा न हुआ. खूब सुन्दर
करेगा ख़ुद पे भरोसा तो साथ देगा रब
बग़ैर अज़्म, कहीं कोई मोजज़ा न हुआ. लाजवाब ..........
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वाह जनाब वाह ..क्या बात है
किसी चिराग़ सा मैं और आफ़्ताब सा वो
ये उस की सादा-दिली फिर भी आईना न हुआ.......सादर
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