एक वृक्ष की दो संताने तू गुलाब मैं काँटा
जो तुझको फुसलाता है मैं धर देता हूँ चाँटा
तितली भ्रमर और मधुमक्खी सब मुझसे थर्राते
मेरे डर से पास तुम्हारे आने में भय खाते
वन-कानन का पशु भी कोई परस नहीं कर पाता
मणिधर भी तेरी सुगंध को लेने से घबराता
हाथ बढ़ाता यदि कोई तो मैं उसको डस लेता
पवन किन्तु बहलाकर मुझको कुछ तेरा रस लेता
सभी जीव तो हैं अवश्य रस-परिमल के दीवाने
पर निर्मम मानव का अंतर इतने से ना माने
छिन्न तुझे पादप से करने की उसकी अभिलाषा
मैं पढ़ लेता हूँ कदर्य के पापी मन की भाषा
पर पापी मानव पर मेरा कोई जोर न चलता
वह अपनी दुर्दम्य लालसा से जगती को छलता
वस्त्र फाड़ कर यद्यपि उसको मैं घायल कर देता
नोक –भोंक को सहकर भी वह है तुझको हर लेता
देह छेद कर तेरी फिर वह धारण करता माला
देवों के विग्रह पर भी तू असहज जाता डाला
तेरे गुच्छ -माल का अर्पण मानव शव पर करते
फेंक राह पर निष्ठुरता से चरण उसी पर धरते
टूट-टूट कर जीवन भर तूने निज परिमल बाँटा
अस्तु सुमन पाटल कहलाया मैं काँटे का काँटा
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आ० सौरभ जी
आप को हिन्दी के हर युग और युगीन प्रवृत्तियों की जानकारी है , इसलिये आपसे आशीष पाकर मुझे संतुष्टि मिलती है . सादर
-----आ० विजय सर !
आपके शेर ने दिल फडका दिया ------- वाह.सादर.
कहाँ ले गये हमें आदरणीय गोपाल नारायनजी ? उन दिनों में जब हम रामवृक्ष बेनीपुरी की पद्यात्मक गद्य रचनायें पढ़ा करते थे ! या माखनलालल् चतुर्वेदी की ’पुष्प की अभिलाषा’ पर निहाल हुआ करते थे ! आदरणीय, ऐसी ही रचनाएँ हम तब सत्तर-अस्सी के दशक में जूनियर-मिडिल स्कूलों के पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा करते थे. इस रचना की भाषा भी ’चालीस के दशक’ वाली है. प्रवाह भी ऐसा कि मन बह-बह जाये. व्यतीत हो चुके आत्मीय दिनो में फिर से ले जाने के लिए प्रभूत धन्यवाद.. एवं हार्दिक बधाई आदरणीय..
सादर
बहुत सुन्दर रचना बनी है, आदरणीय डॉ o गोपाल नारायण जी, बधाई,
कुछ याद आ गया,
काँटा समझ के मुझसे न दामन बचाइये,
उजड़ी हुयी बहार की मैं यादगार हूँ।
सादर।
आ० सुनीलजी
आभार .
सही पहचाना अनुज . यह रचना सार छन्द् में ही है . सादर .
वाह , क्या बात है , बड़े भाई , हार्दिक बधाई आपको । सार छंद मे तो नही है रचना ?
आ0 नरेन्द्र जी
आपकी मेहर .
प्रिय महर्षि
बहुत आभार .
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