एक वृक्ष की दो संताने तू गुलाब मैं काँटा
जो तुझको फुसलाता है मैं धर देता हूँ चाँटा
तितली भ्रमर और मधुमक्खी सब मुझसे थर्राते
मेरे डर से पास तुम्हारे आने में भय खाते
वन-कानन का पशु भी कोई परस नहीं कर पाता
मणिधर भी तेरी सुगंध को लेने से घबराता
हाथ बढ़ाता यदि कोई तो मैं उसको डस लेता
पवन किन्तु बहलाकर मुझको कुछ तेरा रस लेता
सभी जीव तो हैं अवश्य रस-परिमल के दीवाने
पर निर्मम मानव का अंतर इतने से ना माने
छिन्न तुझे पादप से करने की उसकी अभिलाषा
मैं पढ़ लेता हूँ कदर्य के पापी मन की भाषा
पर पापी मानव पर मेरा कोई जोर न चलता
वह अपनी दुर्दम्य लालसा से जगती को छलता
वस्त्र फाड़ कर यद्यपि उसको मैं घायल कर देता
नोक –भोंक को सहकर भी वह है तुझको हर लेता
देह छेद कर तेरी फिर वह धारण करता माला
देवों के विग्रह पर भी तू असहज जाता डाला
तेरे गुच्छ -माल का अर्पण मानव शव पर करते
फेंक राह पर निष्ठुरता से चरण उसी पर धरते
टूट-टूट कर जीवन भर तूने निज परिमल बाँटा
अस्तु सुमन पाटल कहलाया मैं काँटे का काँटा
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आ० मोहन सेठी जी
बलिहारी हूँ . सादर .
समीर कबीर साहेब
आदाब , शुक्रिया .
आ० श्याम नारायन जी
आपका शुक्रिया .
प्रिय कृष्णा
अनुगृहीत हूँ .
आओ विनय जी
सादर आभार .
बेहद खूबसूरत
वाह ,,बेहद खूबसूरत आ. डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी ,,आपकी लिखनी सचमुच कहर ढा रही है ,,आपके अनुज का आपको प्रणाम |
फूल और कांटे की व्यथा खूब सुंदर शब्दों में पिरोई आपने ...सादर
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर |
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