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मुद्दत से जिसने दुनिया वालों से मेरा नाम छुपा रक्खा है
जलने वालों ने ज़माने में उसका ही नाम बेवफा रक्खा है
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रातों-रातों उठ उठ कर हमने आँसू बोयें हैं दिल की जमीं पर
तुम क्या जानोंगे कैसे हमने बाग़-ए-इश्क ये हरा रक्खा है
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वो मेहरबां है तो कुछ और न सुनाई दे,गर हो जाय खफा तो
चूड़ी ,कंगन, पायल, बादल..कासिद कायनात को बना रक्खा है
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बात कलम और कासिद की क्या जाने ये ईमेल जमाने वाले
आँसू, बोसे, खुशबू, जादू कागज के ख़त में क्या क्या रक्खा है
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इक ना इक दिन तो मिलके ही रहूँगा ‘‘जान’’ उस जादूगर से मैं
जिसने टांकें हैं फलक पे सितारे,जिसने चाँद का दिया रक्खा है
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मौलिक व् अप्रकाशित (c) जान गोरखपुरी
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Comment
वाह वाह जान साहेब इस बार रंगत ग़जब की है ...
रातों-रातों उठ उठ कर हमने आँसू बोयें हैं दिल की जमीं पर
तुम क्या जानोंगे कैसे हमने बाग़-ए-इश्क ये हरा रक्खा है
बहुत खूबसूरत रचना के लिये आपको बधाई ॥ |
// इक ना इक दिन तो मिलके ही रहूँगा ‘‘जान’’ उस जादूगर से मैं
जिसने टांकें हैं फलक पे सितारे,जिसने चाँद का दिया रक्खा है // । वाह , वाह , वाह , क्या खूबसूरत पंक्तियाँ हैं , माशाअल्लाह आपने कमाल कर दिया है , दिली दाद क़ुबूल करें आदरणीय जान गोरखपुरी जी.
प्रिय कृष्ण
हो सकता है तुम्हारी इस गजल में गुनीजन कोई कमी तलाश लें मगर इसमें तुमने प्राण फूंक दिए हैं -किसी एक अशआर की बात नहीं है सभी शेर बाकमाल कहे गए है . मैं केवल आशीष ही दे सकता हूँ . सस्नेह .
क ना इक दिन तो मिलके ही रहूँगा ‘‘जान’’ उस जादूगर से मैं
जिसने टांकें हैं फलक पे सितारे,जिसने चाँद का दिया रक्खा है
…बहुत सुंदर भावों की ग़ज़ल बन पड़ी है आदरणीय … हार्दिक बधाई।
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