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कागज के ख़त...........'जान' गोरखपुरी

२२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२

 

मुद्दत से जिसने दुनिया वालों से मेरा नाम छुपा रक्खा है

जलने वालों ने ज़माने में उसका ही नाम बेवफा रक्खा है

 

**

 

रातों-रातों उठ उठ कर हमने आँसू बोयें हैं दिल की जमीं पर  

तुम क्या जानोंगे कैसे हमने बाग़-ए-इश्क ये हरा रक्खा है

 

**

 

वो मेहरबां है तो कुछ और न सुना दे,गर हो जाय खफा तो   

चूड़ी ,कंगन, पायल, बादल..कासिद कायनात को बना रक्खा है  

 

**

 

बात कलम और कासिद की क्या जाने ये ईमेल जमाने वाले

आँसू, बोसे, खुशबू, जादू कागज के ख़त में क्या क्या रक्खा है

 

**

 

इक ना इक दिन तो मिलके ही रहूँगा ‘‘जान’’ उस जादूगर से मैं  

जिसने टांकें हैं फलक पे सितारे,जिसने चाँद का दिया रक्खा है

 

 

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         मौलिक व् अप्रकाशित (c) जान गोरखपुरी

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Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on June 5, 2015 at 4:14pm

वाह वाह जान साहेब इस बार रंगत ग़जब की है ...

रातों-रातों उठ उठ कर हमने आँसू बोयें हैं दिल की जमीं पर  

तुम क्या जानोंगे कैसे हमने बाग़-ए-इश्क ये हरा रक्खा है

Comment by Shyam Narain Verma on June 5, 2015 at 3:35pm
बहुत खूबसूरत रचना के लिये आपको बधाई ॥
Comment by विनय कुमार on June 5, 2015 at 3:35pm

// इक ना इक दिन तो मिलके ही रहूँगा ‘‘जान’’ उस जादूगर से मैं
जिसने टांकें हैं फलक पे सितारे,जिसने चाँद का दिया रक्खा है // । वाह , वाह , वाह , क्या खूबसूरत पंक्तियाँ हैं , माशाअल्लाह आपने कमाल कर दिया है , दिली दाद क़ुबूल करें आदरणीय जान गोरखपुरी जी.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 5, 2015 at 2:35pm

प्रिय कृष्ण

हो सकता है तुम्हारी इस गजल में गुनीजन कोई  कमी तलाश लें मगर  इसमें तुमने प्राण फूंक दिए हैं -किसी एक अशआर की बात नहीं है सभी शेर बाकमाल कहे गए है . मैं केवल आशीष  ही दे सकता हूँ . सस्नेह .

Comment by Sushil Sarna on June 5, 2015 at 2:29pm

क ना इक दिन तो मिलके ही रहूँगा ‘‘जान’’ उस जादूगर से मैं
जिसने टांकें हैं फलक पे सितारे,जिसने चाँद का दिया रक्खा है
…बहुत सुंदर भावों की ग़ज़ल बन पड़ी है आदरणीय … हार्दिक बधाई।

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