वो पत्थर था , बहुत थे फेंकने वाले
बन गए हीरे पर , उसे तराशने वाले
कब समझा है कोई वक़्त का इशारा
बन गए हैं ख़ुदा , उसे समझने वाले
ख्वाहिशें तो रखते है ज़माने में सब
और ही होते हैं ,उन्हें पूरा करने वाले
ग़ुम है बदगुमानी में ,ये सारी दुनिया
मिलते हैं कहाँ ,अब सच लिखने वाले
तलाश थी सिर्फ , एक फूल की विनय
हज़ार मिले राह में, कांटे रखने वाले !!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी .
आदरणीय विनय जी ..भाव सुंदर हैं बस शिल्प की जरूरत है ..आदरणीय गिरिराज भाईसाब के मशविरे पर अमल करियेगा ..सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , प्रयासरत हूँ ..
आदरणीय विनय भाई , गज़ल कहने का प्रयास बहुत आशा जनक है , हार्दिक बधाइयाँ । बस आपको '' गज़ल की बातें '' जो मंच पर उपलब्ध है का पाठ करना चाहिये , ताकि कुछ आधार भूत नियम जान सकें । हार्दिक शुभ कामनायें ।
आदाब आदरणीय समर कबीर जी , प्रयास करूँगा की सीख सकूँ .
बहुत बहुत आभार आदरणीय सुशील सरना जी .
वो पत्थर ही था और पत्थर ही रहा
बन गए हीरे पर , उसे तराशने वाले
वाह … बहुत खूबसूरत अशआर आपने प्रस्तुत किये हैं आपने आदरणीय … खूबसूरत अहसासों से भरी इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सर।
बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव साहब , मैं पुनः प्रयास करता हूँ | आपका धन्यवाद जो आपने इतना समय दिया इस रचना पर..
अ० विनय जी
आपने मतला सुधार लिया मगर उसे अन्त में फिर दुहराया यह कदापि स्वीकार्य नहीं है क्योंकि गजल का अंतिम शेर जिसमें शायर का तखल्लुस भी होता है उसे मक्ता कहते है i यदि किसी कारण से तखल्लुस न आ पाये तो फिर उसे गजल का आखिरी शेर ही कहेंगे i गजल का बहर में लिखना भी अनिवार्य है बेबहर रचना गजल नहीं होती I मैं आपको कुछ आसन बहर बता रहा हूँ -
122 122 ---------------बहर का नाम है मुतकारिब मुरब्बा सालिम
122 122 122 -------------------------मुतकारिब मुसद्दस सालिम
122 122 122 122------------------- मुतकारिब मुसम्मन सालिम
---- सादर ,.
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