वो पत्थर था , बहुत थे फेंकने वाले
बन गए हीरे पर , उसे तराशने वाले
कब समझा है कोई वक़्त का इशारा
बन गए हैं ख़ुदा , उसे समझने वाले
ख्वाहिशें तो रखते है ज़माने में सब
और ही होते हैं ,उन्हें पूरा करने वाले
ग़ुम है बदगुमानी में ,ये सारी दुनिया
मिलते हैं कहाँ ,अब सच लिखने वाले
तलाश थी सिर्फ , एक फूल की विनय
हज़ार मिले राह में, कांटे रखने वाले !!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय कृष्ण मिश्रा जान गोरखपुरी जी , कुछ सुधार किया है , कृपया बताएं ठीक है --
वो पत्थर था , बहुत थे फेंकने वाले
बन गए हीरे पर , उसे तराशने वाले
कब समझा है कोई वक़्त का इशारा
बन गए हैं ख़ुदा , उसे समझने वाले
ख्वाहिशें तो रखते है ज़माने में सब
और ही होते हैं ,उन्हें पूरा करने वाले
ग़ुम है बदगुमानी में ,ये सारी दुनिया
मिलते हैं कहाँ ,अब सच लिखने वाले
वो पत्थर था , बहुत थे फेंकने वाले
बन गए हीरे पर , उसे तराशने वाले !!
परम आदरणीय गोपाल सर! ने गजल की दृष्टि से मूल बातें बता ही दी है, जिनमे आ. आपने काफिया और रदीफ़ के दोष को मतले में दुरुस्त भी कर लिया है..काफिया 'अने' पर बधने से 'दिखाने' में 'आने' काफिया में लेना दोष पूर्ण होगा! बाकी बात रह गयी है वज्न/बहर की आ० मंच पर गज़ल पर बहुत ही शानदार लेख मौजूद है उनका लाभ लें! आ० rajesh kumari ने सच कहा है भाव पक्ष बहुत सुन्दर है,इस रचना को ग़ज़ल में ढालेंगें तो एक नायाब ग़ज़ल बनेगी!
बहुत बहुत आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी , कोशिश करूँगा कि सीख सकूँ । जैसा की आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी ने कहा है कि // प्रथम शेर के दोनों मिस्रो में समान काफिया और रदीफ़ अनिवार्य है //, तो मैं अगर प्रथम शेर को कुछ यूँ लिखूं तो क्या उचित होगा --
वो पत्थर था , बहुत थे फेंकने वाले
बन गए हीरे पर , उसे तराशने वाले
कृपया मार्गदर्शन करें , सादर धन्यवाद..
विनय कुमार जी ,इस रचना को ग़ज़ल में ढालोगे तो एक नायाब ग़ज़ल बनेगी भाव पक्ष बहुत सुन्दर है बस मापनी पर कसना है उसके लिए आप ओबिओ में ही ग़ज़ल की कक्षा ज्वाइन करें आप धीरे धीरे सब सीख जायेंगे आपने काफिया अने तथा वाले रदीफ़ अच्छे से निबाहया किन्तु पहला मतला नहीं लिखा -मतले की ऊपर की पंक्ति में भी काफिया व् रदीफ़ आता है जैसे आपने नीचे की पंक्ति में लिया है ---बन गए हीरे पर , उसे तराशने वाले
खैर इस कोशिश के लिए बधाई व् शुभकामनायें
बहुत प्रसन्नता हो रही है मुझे की मेरे इस प्रथम प्रयास को आपने समय दिया और मुझे इसकी खामियाँ बतायीं । अभी मुझे इन चीजों का ज्ञान नहीं है , सीखने का प्रयास करूँगा । बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी , आपका स्नेह मिलता रहे..
आ० विनय जी
प्रथम शेर के दोनों मिस्रो में समान काफिया और रदीफ़ अनिवार्य है . जैसे- जमाने ने मारे ज वां कैसे कैसे
जमीं खा गयी आस मां कैसे कैसे
आपने बहर नहीं लिखी इससे शिल्प की परख नहीं की जा सकी
रचना का भाव पक्ष सबल है . प्रयास जारी रहना चाहिए . सादर .
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