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ग़ज़ल - फिल बदीह -- अब ज़रा सा मुस्कुराना आ गया ( गिरिराज भंडारी )

 2122    2122    212

क्या वही फिर से ज़माना आ गया ?

आदमी को दोस्ताना आ गया

 

शर्म उनकी आँखों मे दिखने लगी

इसलिये नज़रें चुराना आ गया

 

फ़िक्र अब करते नहीं यादों की हम

अब हमें उनको भुलाना आ गया

 

ऊब कर रोने से दिल को देखिये  

अब ज़रा सा मुस्कुराना आ गया

 

जब से बातिल हो गये अहबाब सब

आइनों से मुँह छिपाना आ गया

 

प्यार की फित्नागिरी तो देखिये - फित्नागिरी - जादूगरी

बेसुरों को गुनगुनाना आ गया

 

आप के पीछे चली आयी बहार

और मौसम शाइराना आ गया

 

हाथ कासे तक गया तो था मगर  -- कासा= भिक्षा पात्र

याद अपना फिर घराना आ गया

 

रफ़्ता रफ्ता रास्ता कटता गया

और अपना भी ठिकाना आ गया

*********************************

मौलिकेवँ अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on June 18, 2015 at 2:19pm

आदरणीय राहुल भाई , आपका आभार ।

Comment by वीनस केसरी on June 18, 2015 at 1:46pm

वाह बहुत शानदार ग़ज़ल है
आख़िरी शेर बहुत प्यारा है

समर साहब की इस्लाह से इत्तेफ़ाक है 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 17, 2015 at 9:27pm

आप के पीछे चली आयी बहार

और मौसम शाइराना आ गया

वाह! आदरणीय बहुत सुन्दर गज़ल हुयी है,शेर दर शेर दिली दाद प्रेषित है!

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 17, 2015 at 7:03pm
  1. आ0 भण्डारी भाई जी, बेहतरीन गज़ल हेतु दाद कुबूल फरमाए. सादर
Comment by narendrasinh chauhan on June 17, 2015 at 5:35pm

रफ़्ता रफ्ता रास्ता कटता गया

और अपना भी ठिकाना आ गया

लाजवाब बहोत खूब

Comment by Rahul Dangi Panchal on June 17, 2015 at 5:33pm
क्या बात है आदरणीय एक बढ के एक गजल वाह आप तो गजल सागर में डूब गये

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 17, 2015 at 5:23pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आपके स्नेह और सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 17, 2015 at 5:22pm

आदरनीय समर कबीर भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ॥ आपने सही कहा है  , मै शब्द को बदल के जादू गरी कर लूंगा । मै अभी तक दोनो को समानार्थी समजह्ता था । आपका शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 17, 2015 at 5:20pm

आदरणीय शयाम नारायण भाई , सराहना और उत्सह वर्धन के लिये आपका बहुत आभार ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 17, 2015 at 5:04pm

आ० अनुज

शाट पर शाट ,रुकने का नाम नहीं , बहुत उम्दा गजल

हाथ कासे तक गया तो था मगर  

याद अपना फिर घराना आ गया

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