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ये हैं मरासिम उसकी मेरी ही निगाह के
तामीरे-कायनात है जिसका ग़वाह के
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सजदा करूँ मैं दर पे तेरी गाह गाह के
पाया खुदा को मैंने तो तुमको ही चाह के
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हाँ इस फ़कीरी में भी है रुतबा-ए-शाह के
यारब मै तो हूँ साए में तेरी निगाह के
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जो वो फ़रिश्ता गुजरे तो पा खुद-ब-खुद लें चूम
बिखरे पडे हैं फूल से हम उसकी राह के
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छूटा चुराके दिलको वबाले-जहाँ से मैं
ऐ “जान” हम हुए हैं मुरीद इस गुनाह के
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मौलिक व् अप्रकाशित (c) "जान" गोरखपुरी
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Comment
आदरणीय कृष्ण भाई गुनीजनों के मार्गदर्शन अनुसार प्रयासरत रहे , हार्दिक शुभकामनायें
आ. कृषणा भाई , आपने माफी के लायक कोई ग़लती नहीं की है , भूल जाइये । याद रखिये बस ये - कि
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1- इंटरनेट मे संकलित जानकारियाँ आप -हम जैसे ही लोगों का संकालन किया है , बहुत सी बातें विश्वास के योग्य नहीं है , अतः आप भी एक हिन्दी और एक उर्दू शब्द कोश अवश्य पास रखें ।
2- अभ्यास के बाद सायकल लोग हाथ छोड़ के भी चला लेते हैं रिस्क के बावजूद , पर सायकल सीखने वाले को कैसे ये कह दें कि आप भी हाथ छोड़ के सायकल सीखिये , सीखना - सिखाना दोनो ज़िम्मेदारी का काम है , हमेशा याद रखियेगा
3- कोई भी व्यक्ति पूरा जानकार नहीं होता , वो अपने स्तर तक की बात का जवाब दे सकता है , सिखा सकता है
4- जैसे सीखने वाले अलग अलग सोच लिये होते हैं वैसे ही सभी सिखाने वाले एक ही सोच नही रख सकते
5- हम साहित्य से जुड़े व्यक्ति हैं , अतः भाषा की मर्यादा होनी ही चाहिये ।
6- आज ही आ. वीनस भाई जी ने मेरी एक गजल ( जिसकी शायद औरों की तरह आपने भी सराहना की हो ) फोन में पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया , मैने एक शब्द भी बचाव में नही कहा ! अपनी ग़ज़लों की गिनती में मैने एक कम कर लिया , वो गज़ल पटल मे ज़रूर है लेकिन मेरी गिनती में नही है । मै इस सोच का विद्यार्थी हूँ और रहूँगा । ये सोच किसी और की हो ये ज़रूरी नहीं पर मै ऐसा ही हूँ ।
मै अपना मोब. न. दे रहा हूँ , आपको जब कोई कठिनाई हो और ऐसा लगे कि मेरे पास उसका हल मिल सकता है तो बे ख़टके फोन कर सकते हैं -- क्योंकि जो बात लिखने में 15 मिनट ले लेती है , बात करके समझाने में 2 मिनट लगते हैं ।
0 94076 11717 - 0788 2223656
तय जानिये , माफी मांगने जैसी कोई गलती नही हुई है ॥
आ० वीनस सर से गज़ल के बाबत फोन पर कल विस्तार से चर्चा हुयी और बहुत सी बातें समझ में आई,उन्ही को यहाँ आगे रख रहा हूँ...
ये हैं मरासिम उसकी मेरी ही निगाह के
तामीरे-कायनात है जिसका ग़वाह के
//मतले के सानी में ''के'' अतिरिक्त है,पूर्व में मैं मतला और हुस्न-ए-मतला को एक यूनिट के रूप में मानकर चल रहा था,और सानी में ‘के’ को कि के अर्थों में लेते हुए हुस्न के मतला से जोड़कर आगे का शेर रख रहा था..आ० वीनस सर ने ऐसा करना गलत बताया जैसा कि एक शेर अपने आप में पूर्ण होता है इसलिये उसे दुसरे शेर से इस प्रकार जोड़ा नही जा सकता वर्ना गज़ल गज़ल न होकर नज्म का रूप ले लेगी...इस संदर्भ में निश्चित रूप से शेर को बदलने की आवश्यकता है!...//
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सजदा करूँ मैं दर पे तेरी गाह गाह के
पाया खुदा को मैंने तो तुमको ही चाह के
//गाह गाह का का प्रयोग दोष उत्पन्न कर रहा है इसे सुधारने की प्रयास करता हूँ//
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हाँ इस फ़कीरी में भी है रुतबा-ए-शाह के
यारब मै तो हूँ साए में तेरी निगाह के
मिसरा-ए-उला में ....’के’ को ‘कि’ या ‘क्यूंकि’ के अर्थ में देखने पर बात स्पष्ट हो जाती है.............. इस फकीरी में भी शाह का रुतबा है कि या क्यूंकि याखुदा मै आपके निगाह के साए में हूँ..
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जो वो फ़रिश्ता गुजरे तो पा खुद-ब-खुद लें चूम
बिखरे पडे हैं फूल से हम उसकी राह के
सानी में ‘के’ का अर्थ कुछ यूँ रखने का प्रयास था>>>
राह के फूलों से हम बिखरे हुए पड़े है और जब वह फ़रिश्ता इधर से गुजरेगा तो स्वतः कदमबोस होंगे!
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छूटा चुराके दिलको वबाले-जहाँ से मैं
ऐ “जान” हम हुए हैं मुरीद इस गुनाह के
आ० वीनस सर ने शुतुर्गुरबा दोष की ओर ध्यान दिलाया है उसे सुधारने का प्रयास करता हूँ...सानी में मुरीद होना अस्पष्ट सा है..इसके पीछे मेरा ये अर्थ था के मैं बार-बार जन्मों-जन्मों से यही गुनाह करते आ रहा हूँ! दिल चुराने के गुनाह के हम मुरीद से हो गये है!
सादर!
आ० इन चित्रों को प्रस्तुत करने का मकसद अपनी बात को मनवाना नही है बल्कि इस बात की ओर इशारा करना है के एक विद्यार्थी के रूप में विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारियों से कितनी दुविधा पैदा होती है,और इसके बाद यदि कोई एक ही प्रश्न दुबारा पूछे तो उसे हठधर्मिता न समझी जाये,हा बिना किसी आधार के अनरगल बात करना obo पटल पर किसी भी सूरत में स्वीकार नही है..इसका भान मुझे है!
आ० गिरिराज सर! मै तहेदिल से क्षमाप्रार्थी हूँ यदि मेरी कोई बात अशिष्ट लगी हो तो क्षमा करें !
//आपको आपनी गज़ल मे किसी का कुछ कहाना अच्छा नहीं लगता ?// आ० ऐसी कोई बात नही है बस मैंने
अपनी बात एक विद्यार्थी के रूप में ही मंच पर रक्खी थी ,और एक विद्यार्थी के रूप में ही मेरा प्रश्न पूछने का भाव रहता है न कि अपनी बात ही मनवाने का प्रयास !
यदि शिष्य अपनी बात/अपने प्रश्न शिक्षक के सामने नही रक्खेगा तो आखिर वह कैसे और क्या सीखेगा??obo मंच में ससम्मान परस्पर सीखने-सिखाने का जो भाव है मै उसी के अंतर्गत ही अपनी बात रखने प्रयास करता हूँ,
कौन सी बात किस प्रकार से रखनी है या कहनी है इसका मुझे बहुत ज्ञान नही है, यदि कहीं गलती हो जाये तो विनम्र निवेदन है के अल्पमति समझ क्षमा करें!
आ० आपकी एक बात याद आती है के आपने पूर्व में कहा था के गज़ल के शब्दों के वज़न में यदि हिंदी और उर्दू के उच्चारण में भिन्नता के कारण दुविधा हो रही हो तो गज़ल में जिस भाषा की प्रकृति के शब्द अधिक हो उसी के अनुसार वजन का पालन करें!
इस रामबाण उपाय के तहत ही शब्दों के अर्थ के संदर्भ में भी लिया जाये तो ''गाह'' शब्द का अर्थ गजल के प्रकृति के अनुरूप उर्दू शब्द के रूप में ही देखना चहिये..आ० वीनस सर ने भी प्रत्यय के रूप में ही गाह का प्रयोग सही माना है पूर्व में उनकी बात स्पष्ट रूप से मै समझ नही सका इसका खेद है साथ ही क्षमाप्रार्थी हूँ! कारण उर्दू शब्दकोशों में 'गाह' शब्द का अर्थ जगह,स्थान के रूप में दिया होना है!आ० बार-बार पावरकट की समस्या के चलते मैं समय पर प्रतिउत्तर नही दे पा रहा हूँ इसके लिए खेद है..एक विद्यार्थी के रूप गजल पर अपनी बात में आगे रखूँगा...
सजदा करूँ मैं दर पे तेरी गाह गाह के
पाया खुदा को मैंने तो तुमको ही चाह के
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