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मरासिम.............."जान" गोरखपुरी

२२१  २१२१     १२२१   २१२

 

ये हैं मरासिम उसकी मेरी ही निगाह के

तामीरे-कायनात है जिसका ग़वाह के

..

सजदा करूँ मैं दर पे तेरी गाह गाह के

पाया खुदा को मैंने तो तुमको ही चाह के

 ..

हाँ इस फ़कीरी में भी है रुतबा-ए-शाह के

यारब मै तो हूँ साए में तेरी निगाह के

 ..

जो वो फ़रिश्ता गुजरे तो पा खुद-ब-खुद लें चूम

बिखरे पडे हैं फूल से हम उसकी राह के

 ..

छूटा चुराके दिलको वबाले-जहाँ से मैं

ऐ “जान” हम हुए हैं मुरीद इस गुनाह के

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मौलिक व् अप्रकाशित (c) "जान" गोरखपुरी

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 21, 2015 at 9:09pm

इस पर ध्यान दिलाने के लिए आभार भाई manoj जी तामीर और कायनात दोनों ही शब्द स्त्रीलिंग है उसके हिसाब से जिसकी करना ठीक होगा ,पर हम पहले वाक्य को समझ लें..//तामीरे-कायनात है जिसका ग़वाह के// इस मिसरे का सीधा सा अर्थ कुछ यूँ हुआ..सृष्टि का निर्माण जिसका गवाह है...यहाँ पर जिसकी शब्द बैठ नही रहा है..गवाह है से अर्थ सबूत है से है! न की व्यक्ति से!!...तामीरे-कायनात क्रिया हुयी कर्ता छिपा हुआ है!..और गेयता के हिसाब से भी जिसका का प्रयोग मुझे बेहतर लग रहा है,आगे गुनीजनो से मार्गदर्शन निवेदित हैं..

Comment by मनोज अहसास on June 21, 2015 at 6:45pm
आदरणीय
तामीर ए कायनात के साथ जिसका शब्द सही है
या जिसकी आना चाहिए
ये समझ नहीं आ रहा
कृपिया पुनः स्पष्ठ करे।
सादर
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 20, 2015 at 11:46pm

बहुत शुक्रिया आ० विनय सर!आभार!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 20, 2015 at 11:43pm

आ० भाई मनोज जी आभार गजल को मान देने के लिए..

मरासिम = रस्में

तामीरे-कायनात = सृष्टि का निर्माण

मतले के मुश्किल शब्दों के अर्थ दिए है,उम्मीद है के अब आप बेहतर समझ पायेंगें! मानव और सृष्टि की उत्पत्ति के संदर्भ में मैंने मतले का शेर रक्खा है....  'आदम' और 'हव्वा' की जो कथा है आप उस दायरे में भी इसे समझ सकते है..बहुत कुछ!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 20, 2015 at 11:25pm

आ० नरेन्द्र सिंह जी हौसलाफजाई के लिए शुक्रिया!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 20, 2015 at 11:23pm

परम आ० गोपाल सर हार्दिक आभार!सादर!

Comment by विनय कुमार on June 20, 2015 at 3:03pm

बहत बढ़िया गजल . मुबारक हो आदरणीय कृष्ण मिश्रा जान गोरखपुरी जी..

Comment by मनोज अहसास on June 20, 2015 at 1:52pm
बहुत खूबसूरत
हमेशा की तरह
पर मतला समझ नहीं आया
थोडा बता दे
सादर
Comment by narendrasinh chauhan on June 20, 2015 at 1:39pm

खूब सुन्दर गजल के लिए मुबारक हो

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 20, 2015 at 1:08pm

प्रिय कृष्णा

बहत बढ़िया गजल . मुबारक हो .

कृपया ध्यान दे...

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