" भाईसाहब , आपका शुभनाम ?
" जी , राजेश कुमार "।
" और आगे ?
" बस इतना ही , क्यों ?
" मेरा मतलब था कि कोई टाइटल नहीं लगाते आप "।
" जरुरी है क्या ", लहज़ा तल्ख़ हो गया ।
" अब लोगों को पहचाने भी तो कैसे ", अजीब सी नज़रों से देखते हुए वो आगे बढ़ गया ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी , आपकी टिप्पणी से मनोबल बढ़ जाता है..
बहुत बढिया अभिव्यक्ति आदरणीय विनय जी.. हार्दिक शुभकामनाएँ
बहुत बहुत आभार आदरणीय मिथलेश वामनकर जी , आपकी अनुपस्थिति खल रही थी आजकल .
सटीक
सफल
बेहतरीन
प्रभावशील
लघुकथा
इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई आदरणीय विनय जी
बहुत बहुत आभार आदरणीय विजय निकोर जी..
बहुत बहुत आभार आदरणीय ओम प्रकाश जी , ये तो लगभग सबके द्वारा भोगा गया यथार्थ है..
बहुत बहुत आभार आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी , ये तो लगभग सबके द्वारा भोगा गया यथार्थ है..
बहुत बहुत आभार आदरणीय वीर मेहता जी..
अच्छी लघु कथा के लिए बधाई, आदरणीय विनय कुमार सिहं जी।
सही कहा आप ने गीता-ओमप्रकाश ही क्यों हो ? गीता , गीता क्यों नहीं हो सकती. चाहे उस की पहचान गीता गरिमा हो.
अच्छी कथा. अच्छी सोच.
बधाई आप को आदरणीय vinaya kumar singh जी .
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