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" भाईसाहब , आपका शुभनाम ?
" जी , राजेश कुमार "।
" और आगे ?
" बस इतना ही , क्यों ?
" मेरा मतलब था कि कोई टाइटल नहीं लगाते आप "।
" जरुरी है क्या ", लहज़ा तल्ख़ हो गया ।
" अब लोगों को पहचाने भी तो कैसे ", अजीब सी नज़रों से देखते हुए वो आगे बढ़ गया ।
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on July 7, 2015 at 6:18pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी , आपकी टिप्पणी से मनोबल बढ़ जाता है..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2015 at 6:12pm

बहुत बढिया अभिव्यक्ति आदरणीय विनय जी.. हार्दिक शुभकामनाएँ

Comment by विनय कुमार on June 28, 2015 at 2:43pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय मिथलेश वामनकर जी , आपकी अनुपस्थिति खल रही थी आजकल .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 28, 2015 at 3:30am

सटीक 

सफल 

बेहतरीन 

प्रभावशील 

लघुकथा 

इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई आदरणीय विनय जी 

Comment by विनय कुमार on June 24, 2015 at 11:00am

बहुत बहुत आभार आदरणीय विजय निकोर जी..

Comment by विनय कुमार on June 24, 2015 at 10:58am

बहुत बहुत आभार आदरणीय ओम प्रकाश जी , ये तो लगभग सबके द्वारा भोगा गया यथार्थ है..

Comment by विनय कुमार on June 24, 2015 at 10:57am

बहुत बहुत आभार आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी , ये तो लगभग सबके द्वारा भोगा गया यथार्थ है..

Comment by विनय कुमार on June 24, 2015 at 10:56am

बहुत बहुत आभार आदरणीय वीर मेहता जी..

Comment by vijay nikore on June 24, 2015 at 10:49am

अच्छी लघु कथा के लिए बधाई, आदरणीय विनय कुमार सिहं जी।

Comment by Omprakash Kshatriya on June 24, 2015 at 9:11am

सही कहा  आप ने गीता-ओमप्रकाश ही क्यों हो ? गीता ,  गीता  क्यों नहीं  हो सकती. चाहे उस की पहचान गीता गरिमा हो.

अच्छी कथा. अच्छी सोच.

 बधाई आप को आदरणीय   vinaya kumar singh  जी .

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