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छोड़ दूँ अब कुंवारा नगर मैं पिया
काट लूँ सँग तुम्हारे सफर मैं पिया
मन न माने मगर क्या बताऊँ तुम्हें
साथ दोगे चलूंगी सहर मैं पिया
पंखुड़ी खिल गयी राग पाकर कहीं
बेज़ुबां अब न खोलूं अधर मैं पिया
मौत का गम नहीं साथ तुम हो मेरे
मुस्करा के पियुंगी जहर मैं पिया
अब तुम्हारे सिवा कुछ न चाहूंगी मैं
दिल मिलाओ मिलाऊं नज़र मैं पिया
दूर से देखकर आज रुकना नहीं
साथ आओ तो पाऊँ शिखर मैं पिया
भावना में कहीं बह न जाऊं “निधि”
जिंदगी में तुम्हारी लहर मैं पिया
निधि
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
अभ्यासरत रहे.. शुभकामनाएँ. तकनीकी दोष दूर होने लगेंगे.
एक बात :
आपका नाम यदि ’निधि’ है तो इसे ’निधी’ न उच्चारें.
बहुत अच्छी सुन्दर भावपूर्ण ग़ज़ल लिखी है निधि जी ,आ० गिरिराज जी की बात पर गौर करें बाकी सभी अशआर बढ़िया हुए हैं दिल से बधाई .
आदरणीया ग़ज़ल खूब अच्छी कही है , हार्दिक बधाइयाँ आपको । इस मिसरे की तक्तीअ फिर से कर लीजियेगा ॥
काट लूँ सँग तुम्हारे सफर मैं पिया
खूब सुन्दर रचना
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