खिड़कियों में घन बरसते
द्वार पर पुरवा हवा..
पाँच-तारी चाशनी में पग रहे
सपने रवा !
किन्तु इनका क्या करें ?
क्या पता आये न बिजली
देखना माचिस कहाँ है
फैलता पानी सड़क का
मूसता चौखट जहाँ है
सिपसिपाती चाह ले
डूबा-मताया घुस रहा है
हक जमाता है धनी-सा
जो न सोचे..
क्या यहाँ है ?
बंद दरवाजा, खुला बिस्तर,
पड़ी है कुछ दवा..
किन्तु इनका क्या करें ?
मात्र पद्धतियाँ दिखीं
प्रेरक कहाँ सिद्धांत कोई
क्या करे मंथन
विचारों में उलझ उद्भ्रान्त कोई
चढ़ रहा बाज़ार
फिर भी क्यों टपकता है पसीना ?
सूचकांकों के गणित में
पिट रहा है क्लान्त कोई
एक नचिकेता नहीं
लेकिन कई वाजश्रवा
किन्तु इनका क्या करें ?
सिमसिमी-सी मोमबत्ती
एक कोने में पड़ी है
पेट-मन के बीच, पर,
खूँटी बड़ी गहरी गड़ी है
उठ रही
जब-तब लहर-सी
तर्जनी की चेतना से,
ताड़ती है आँख जिसको
देह-बन्धन की कड़ी है
फिर दिखी है रात जागी
या बजा है फिर सवा..
किन्तु इनका क्या करें ?
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-सौरभ
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी सुंदर नवगीत पर बधाई ....आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी की टिप्पणी से बात समझने में आसानी रही ....सादर
आदरणीय सौरभ सर,
गहन वैचारिक और आज के अवसरवादी एवं बाजारवादी जीवन शैली के सत्य को उद्घाटित करता सुन्दर नवगीत हुआ है. इस प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई, नमन
आज की इन विसंगतियों भरी विपरीत परिस्थितियों में बरसते घन, पुरवाई और पांच तारी चाशनी में पगे सपने सब किसी झूट से लगते है. ( वैसे चाशनी में तीन तार भी नहीं आते आजकल..... चेतन, अचेतन, अवचेतन, अतिचेतन और
सामूहिक चेतन मन इन पांच तारी चाशनी में डूबे हुए सुहावने सपने वास्तव के असत्य से ज्यादा कुछ नहीं.)
बिजली, माचिस, सड़क, पानी, चौखट आदि में मध्यमवर्ग की समस्यायें बड़े ही सधे हुए ढंग से शाब्दिक हुई है ऐसे हालात में फिर इस दवा का होना कम से कम इलाज तो नहीं है. क्या ये व्यर्थ नहीं है !
आज की बाजारवादी जीवन पद्धति में सब अवसरवादी हो गए है. इसका जिन्हें लाभ मिलना था उन्हें न कोई लाभ मिल रहा है और न ही उनकी जीवन शैली में सुधार हो रहा है बस आकड़ों का खेल चल रहा है. विश्वजीत बनने को
केवल अस्वस्थ और सामर्थ्यहीन गायों का दान किया जा रहा है. ऐसे दानदाता तो बहुत है किन्तु इस समझ को देखने और बताने वाले नचिकेता नदारद है. इस पद्धति से न उद्देश्य सफल होना है और न ही सकारात्मक परिणाम मिलने
है बल्कि विपरीत फल न मिल जाये.
इन स्थितियों में तर्जनी की चेतना के इंगितों को समझना और चेतावनी को समझकर उसके अनुरूप कर्म करना पेट की विडम्बना में बहुत दुष्कर है. (बुद्ध जब तर्जनी उठाकर उपदेश देते है उस मुद्रा में हिदायते और समझाइश अधिक
होती है उन हिदायतों को मन मान भी ले मगर पेट का संकट में ऐसे सभी इंगित स्वयं ही अनदेखे हो जाते है. इन परिस्थितियों में क्या किया जा सकता है.
बहुत ही उत्कृष्ट नवगीत हुआ है. इस रचना को मैं अपने अल्पज्ञान और अनुभव की सीमा तक ही समझ पाया हूँ. समझने में त्रुटी या दिशाहीनता की सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता किन्तु अपनी पाठकीय छूट लेते हुए
रचना का आनंद ले रहा हूँ.
सादर
सिमसिमी-सी मोमबत्ती
एक कोने में पड़ी है
पेट-मन के बीच, पर,
खूँटी बड़ी गहरी गड़ी है
उठ रही
जब-तब लहर-सी
तर्जनी की चेतना से,
ताड़ती है आँख जिसको
देह-बन्धन की कड़ी है
अद्भुत और अप्रतिम अंतर्मन में निहित भावों की दिलकश प्रस्तुति … भाव प्रवाह पाठक के मन को आदि से अंत तक खींच कर ले जाता है … इस सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आ.सौरभ सर
अनुमोदन हेतु धन्यवाद आदरणीया परी जी..
आदरणीया कान्ताजी, आपको नवगीत विधा की रचना पसंद आती, बिम्ब रुचिकर लगे, यह अधिक आश्वस्तिकारक है. आजकी हिन्दी पद्य-विधाओं में नवगीत को कविता वृत की धुरी माना जाता है.
अनुमोदन केलिए हार्दिक धन्यवाद.
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