पुलिस के सिपाही अकसर चौराहे से नदारद रहते, । सरकारी ड्यूटी बीच में छोड़ किसी अपने निजी काम से निकल जाते। किन्तु उनके जाते ही एक वृद्ध हाथ में तख्ती लिये वहां खड़ा हो जाता, जिस पर लिखा होता:
"जिंंदगी ज़्यादा ज़रूरी है, जल्दबाज़ी न करें'
कुछ लोग रूक कर पूछ लेते
'बरसों से देख रहे है बाबा, क्यों इतनी परेशानी उठाते हो ? इस काम के लिए पुलिस है न यहाँ।"
"हाँ बेटा, पर पुलिस क्या जाने दर्द क्या होता है।"
"उनको तो सरकार तनख्वाह देती है, तुम सारा दिन क्यों खपते रहते हो ?"
"बेटा, जैसे ही लोग यह तख्ती देखते है, गाड़ी धीमी गति से चलना शुरू कर देते है। जैसे माँ के शब्द उनके कानो में गूंजने लगते हों :कि "बेटा समय से घर आ जाना।"
यह कहते हुए उसकी आँखें बरबस बरस पड़ी ।
"मैंने अपना जवान बेटा, अपने बुढ़ापे की लाठी गँवायी है सड़क हादसे में ।"
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीया नीताजी, इस रचना प्रयास पर हार्दिक बधाइयाँ स्वीकारें.
सादर
आदरणीय नीता जी , आपका विषय बेहद संज़ीदा है!मैने कुछ समय पूर्व एक समाचार पत्र में ऐसी ही एक खबर पढी थी कि एक महिला अपने इकलौते बेटे को सडक दुर्घटना में गंवा बैठी थी!अब वह महिला अपनी सेवायें ट्रैफ़िक कंट्रोल के लिये स्वेच्छा से बिना किसी आर्थिक लाभ के दे रही है!बेहतरीन रचना !बधाई!
अगहु कथा तो बढ़िया है पर क्या सचमुच ऐसा कोई पागल (संवेदनशील) बुद्ध वास्तव में मिल सकता है . कहानी आदर्श तो है पर यथार्थ से दूर लगती है . , सादर .
कथा अपने मर्म को अभिव्यक्त करने में सफल
हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर
आदरणीय नीता कसार जी , आप की लघुकथा में जान है. क्यों न हो, आप की कथा पर आप ने भरपूर मेहनत की है. इस बढ़िया लघुकथा की मेरी और से बधाई .
बहुत मार्मिक लघुकथा , दर्द तो वही समझ सकता है , जिसने खोया हो किसी को | बधाई ..
आदरणीया Nita Kasar जी बिलकुल सत्य है ज़रा सी लापरवाही कितना अनर्थ कर सकती है ....सार्थक लघुकथा के लिये बधाई
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