बरसाती नदी सी क्यूँ हो तुम ?
किसी और की मनोदशा
निर्धारित करती है तुम्हारा बहाव
किसी की मेहेरबानी से चल पड़ती हो
तो कभी सूख जाती हो
कभी सोचा है
मेरा हाल उस मछली की तरहाँ होता है
जो बचे-खुचे कीचड़ में
तड़पती है सिर्फ़ भीगने के लिये
जिंदा रहने के लिये
और जब सैलाब आता है
तो बहुत दूर बह जाती है बेकाबू
तुम कब एक प्रवाह में स्वतन्त्र बहोगी
नदी हो... पहाड़ों से टक्कर ले जीत चुकी हो
अब कोई कैसे स्वार्थ के बांध बना
रोक सकता है तुम्हारा प्रवाह
हे प्रिये ....तोड़ कर सब बंधन
बह निकलो एक स्वतन्त्र
कल-कल करती नदी सी !!
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
टंकण त्रुटियाँ ठीक कर लें, आदरणीय
यथा,
किसी और की मनोदशा
निर्धारित करता है तुम्हारा बहाव
इसी तरह तरहाँ को तरह कर लेना उचित प्रतीत होता है.
बाकी, कविता की भावदशा आश्वस्तिकारी है. शुभ-शुभ
आदरणीया savitamishra जी हार्दिक आभार ...सादर
बहुत खूब
आज कल थोड़ा कम आना हो पा रहा है क्षमा चाहता हूँ ....आप का होंसला अफज़ाई के लिये शुक्रिया ....एवं आभार
आदरणीय vijay nikore जी
आदरणीया Pari M Shlok जी
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
एवं आदरणीय shree suneel जी
आप के प्रोत्साहन से साहस बना रहता है ....सादर
bhavpoorn , sundar .
रचना के भाव में बहता ही गया। सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई।
आदरणीय vinaya kumar singh जी आप का धन्यवाद .....सादर
वाह , बहुत उम्दा कविता | एक नारी के लिए लिखी गयी पंक्तियाँ अपना प्रभाव छोड़ने में पूरी तरह सफल हैं | बधाई इस रचना के लिए आदरणीय..
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