घर से बाहर जिसे मैं ,
दर दर ढूँढता फिरा
वो बच्चा,
मेरे ही घर में छिपकर
मेरी बौखलाहट पे ,
हँसता रहा I
मै रहा देहरियाँ चूमता ,
मज्जिद बुतखाने की
मेरे दर पे बैठा वो ,
राह तकता रहा
मेरे घर लौट आने की I
ढली शाम , खाली हाथ
अब मैं हूँ लौट आया ,
किया ढूँढने में जिसे
सारा दिन जाया
हाय , घर के अन्दर उसे
मुस्कुराते पाया I
पर अब थक गया हूँ
उसके साथ,
, कहाँ खेल पाऊँगा
बस उसे देखते देखते
यूं ही सो जाऊँगा I
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
आपकी प्रतिक्रियाएं सदा ही उत्साहित करती हैं , हार्दिक आभार आ० मिथिलेश जी
बहुत ही भावपूर्ण रचना. अपने घर में ही है उसका वास और उसे ताउम्र यहाँ वहां ढूंढते रहे और जब तक पता चला बहुत देर हो गई..... चिर निंद्रा में सोने का समय आ गया. घर और बच्चे के प्रतीकों से बहुत गहन भावना शाब्दिक हुई है. प्रतीकों का सहज प्रयोग मुग्ध कर रहा है, रचना कहीं भी असहज नहीं हुई. पाठक तक रचना का सहज सम्प्रेषण ही इसकी बड़ी विशेषता है. इस बेहतरीन रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीया प्रतिभा जी
सराहना के लिए धन्यावाद ज्योत्स्ना कपिल जी
आ० विनय कुमार जी , रचना की सराहना के लिए तहे दिल से आभार
मेरे इस छोटे से खोये बच्चे को आपने पहचाना , धन्यवाद कांता रॉय जी
आ० मोहन सेठी जी , आपको रचना अच्छी लगी ,मेरा सौभाग्य आपका हार्दिक आभार
बहुत सुन्दर कविता , ये तो खुशियां हैं जिन्हे हम दर दर ढूंढते हैं लेकिन मिलती अपने अंदर ही हैं | बधाई इस रचना के लिए..
वाह बहुत सुंदर शब्द है गहरे भाव लिये .....न जाने कहाँ कहाँ ढूंडा और जब मिला तो वक़्त ही ना रहा ....हार्दिक बधाई इस रचना के लिये ....सादर
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