गुस्से से उबल रहे थे चौहान जी , प्रदेश के कई भागों से दंगे की खबरे आ रहीं थी | उनको लग रहा था कि काश उनको मौका मिले तो वो उन सब को सबक सिखा दें | अचानक उनको याद आया और पूछा " रामलीला की सारी तैयारी हो गयी , रावण का पुतला बन गया कि नहीं ?
" हाँ , पुतला बन के आ गया है | वो पैसे लेने आया है , दे दीजिये "|
" ठीक है , भेज दो उसको अंदर "|
" कितना हुआ रहीम ?
" अरे जितना देना हो , दे दीजिये | इस काम के पैसे का भी मोल भाव करूँगा "|
रहीम की बात सुनकर उनको कुछ तो हुआ और यकबयक उनके हाथों ने रहीम की हथेली को कस कर पकड़ लिया |
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी , आपको लघुकथा ने प्रभावित किया , सादर धन्यवाद आपका .
बहुत बहुत आभार आदरणीय जवाहर लाल सिंह जी.
दरअसल ये गंगा जमुनी तहज़ीब की जड़ें इतनी गहरी हैं कि छोटी मोटी घटनाएँ इसको हिला नहीं सकतीं | आपने बिलकुल सही समझा आदरणीय महर्षि त्रिपाठी जी..
पूर्वाग्रह ग्रस्त हो कर मन में समाज के किसी भी समुदाय के प्रति कटुका की भावना रखना सर्वथा अनुचित है.
आपसी समन्वय और भाईचारा राष्ट्र-चेतना में अन्तर्प्रवाहित है जिसे स्वीकार करने के लिए कहानी के पात्र चौहान साहब का ह्रदय खुला तो सही..:))
सुन्दर प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई
बहुत ही सुन्दर पेशकश ...धर्म के नाम पर दंगा फैलानेवालों के लिए सुन्दर सन्देश!
आ. vinaya kumar singh जी ,छ्माप्रार्थी हूँ पर आखिरी लाइन समझ नही पा रहा हूँ ,कृपया अर्थ समझाये ?क्या उन्हों ने रहीम से हाथ् मिलाकर एकता का सन्देश दिया ?
बहुत बहुत आभार आदरणीया नीता कसार जी ..
आदरणीय विनय जी,बहुत ही उमदा लघुकथा!धर्म कर्म के मामले में कैसी सौदेबाज़ी!!हार्दिक बधाई!
बहुत बहुत आभार आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी..
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