" इतने पैसे नहीं हैं मेरे पास , सोच समझ कर माँगा और खर्च किया करो ", पति की आवाज़ उसके मन को मथ रही थी | काश उसने भी नौकरी की होती तो आज पार्टी के लिए पैसे मांगने की नौबत तो नहीं आती | यही सब सोचती किचन की ओर बढ़ी थी कि अचानक उसके कदम ठिठक गए | दरवाजे से उसकी नज़र पड़ गयी थी कामवाली पर जो नीचे रखे प्लेट्स में से निकाल कर पूरी वगैरह अपने पल्लू में बांध रही थी |
फिर उसने एक प्लेट में ढेर सारा खाने का सामान रखा और थोड़ी दूर से आवाज़ लगायी " बाई , ये प्लेट भी धुलने में रख देना "|
उसे बाई को सीधे खाना देना पता नहीं क्यों ठीक नहीं लगा |
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी , लघुकथा के मर्म ने आपको छुआ , ह्रदय से धन्यवाद आपको.
बहुत बहुत आभार आदरणीय जवाहर लाल सिंह जी ..
बहुत बहुत आभार आदरणीय ओमप्रकाश क्षत्रिय जी..
कमाल ...कमाल...कमाल
लाज़वाब लघुकथा आदरणीय विनय जी.
गज़ब लिखा है आपने झन्नाटेदार
चकित हूँ .... बहुत बहुत धन्यवाद इस प्रस्तुति हेतु
बहुत ही सुन्दर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण !
वाह नायिका को भीख मांगना और देना - दोनों को बुरा मानना अच्छा लगा. बधाई इस मनोविशालेश्नात्मक लघुकथा के लिए.
बहुत बहुत आभार आदरणीया सविता मिश्रा जी..
बहुत बहुत आभार आदरणीय मनोज कुमार एहसास जी..
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