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काली सड़क लाल खून से भीगकर कत्थई हो गई थी। एक तरफ से अल्ला हो अकबर के नारे लग रहे थे तो दूसरी तरफ जय श्रीराम गूँज रहा था। हाथ, पाँव, आँख, नाक, कान, गर्दन एक के बाद एक कट कट कर सड़क पर गिर रहे थे। सर विहीन धड़ छटपटा रहे थे। बगल की छत पर खड़ा एक आदमी जोर जोर से हँस रहा था।

एक एक कर जब सारे मुसलमानों के सर काट दिये गये तब बचे हुए दो चार हिन्दुओं की निगाह छत पर गई। वहाँ खड़ा आदमी अभी तक हँस रहा था। एक हिन्दू ने छलाँग मारकर खिड़की के छज्जे को पकड़ा और अपने शरीर को हाथों के दम पर उठाता हुआ कुछ ही क्षणों में छत पर पहुँच गया। छत पर खड़े आदमी की हँसी गायब हो गई। वो बोला, “मुझे क्यूँ मार रहे हो मैं तो नास्तिक हूँ।"

मारने वाले ने कहा, “तुझे इसलिए मार रहा हूँ क्यूँकि तू हम पर हँस रहा था।”

मरने वाला मरने से पहले इतना ही बोल सका, “हत्यारों को हत्या करने का बहाना चाहिए।”

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(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by maharshi tripathi on July 22, 2015 at 9:24pm

लघुकथा का सार एकदम साफ़ है -हत्यारों के पास संवेदना कहाँ होती है ?उन्हें तो बस हत्या के लिए बहाना चाहिए | इसये सिर्फ सन्देश देनी वाली लघुकथा है ,इसका किसी भी जाति या किसी की भावना को ठेस पहुचाना नही है |बढ़िया प्रयास आ. धर्मेन्द्र कुमार सिंह  जी |

Comment by saalim sheikh on July 21, 2015 at 11:45pm

बेहतरीन चित्रण! 

बेहद सुन्दर लघुकथा !

लेकिन आपको हिन्दू मुस्लिम की जगह शिया,सुन्नी / इराकी,ईरानी/ अहमदी,वहाबी/ नास्तिक,मुस्लिम/ सपाई,आपपाई जैसा कुछ लिखना चाहिए था वर्ना भावनाएं आहत होने का भयंकर खतरा होता है 

बाकि बक़ौल शायर-

वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था

वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 21, 2015 at 10:42pm

जी आदरणीय धर्मेन्द्र जी सम्ह गया , आभार , सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 21, 2015 at 4:13pm

बेचारे ’मुसलमान’.. एक-एक कर खून के चिर प्यासे हिन्दुओं के हत्थे चढते गये. ओह ! उनमें एक ऐसा ’हिन्दू’ भी मारा गया जो उन खून के चिर प्यासे हिन्दुओं की पैशाचिकता पर ठहाके लगाता हुआ दुहरा हो रहा था !

इन सभी ’सचेत’ बेचारों में एक मैं भी, एक उन्मुक्त सोचधारी ’हिन्दू’, उन ’हिन्दुओ’ में से एक के द्वारा थुरा गया हूँ.. मैं ठहाके लगाने वालों में से एक हिन्दू, एक पाठक !

आततायी सोच से प्रेरित-प्रभावित उन आतताइयों के मुँह पर किसिम-किसिम के मखौटे हैं. वे किसी ’अवतार’ में अपना काम करते हैं. और, इस ’सचेत’ समाज का रक्त बहाते हैं.  गन्दे !.. तभी तो, एक ’अच्छी कथा’ को मेरा पाठक पढता हुआ ’आइसीयू’ (इण्टेन्शनली सर्कुलेटेड अण्डरस्टैण्डिंग) में पड़ा है, पुनः चैतन्य होने के लिए ! ताकि उन हिन्दुओं में से ’एक’ के द्वारा फिर उसकी रचनात्मकता से मारा जा सकूँ  ! ताकि, उस एक ’हिन्दू’ आतताई को भले ही जुगुप्साकारी, किन्तु उसके लिए लेखकीय आनन्द का नैसर्गिक भान हो..

आदरणीय धर्मेन्द्रजी, आप वाकई कमाल हैं ! बधाई व शुभकामनाएँ. 

बाइ द वे, कमल मित्रा चिनॉय का Why I Joined AAP and Quit the CPI अवश्य पढ़ गये होंगे. ओह, अत्यंत प्रभावी और उत्प्रेरित करता हुआ आर्टिकल है. भले ही अंत में ’भइयाजी.. इस्माऽऽइल’ जैसा ब्रह्मवाक्य सुनाई देता है..  ;-))

Comment by TEJ VEER SINGH on July 21, 2015 at 3:19pm

आदरणीय धर्मेंद्र जी, बडा सटीक और बेबाक व्यंग किया है !बहुत सुंदर लघुकथा!हार्दिक बधाई!

Comment by मनोज अहसास on July 21, 2015 at 2:57pm
बहुत ही संवेदनशील विषय है सर
साहित्य की रक्षा कीजिये
विवादित से बचना ही श्रेष्ठ है
सादर
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 21, 2015 at 2:46pm
आदरणीय कुशवाहा जी, एक कहावत है "जब सास बहू को डाँटना चाहती है तो वो बेटी को डाँटती है।" उम्मीद है बात स्पष्ट हो गई होगी।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 21, 2015 at 2:39pm
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय ओमप्रकाश जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 21, 2015 at 2:38pm
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 21, 2015 at 2:01pm

इसी बीच दंगाइयों में से एक व्यक्ति उछल कर छत पर चढ़ गया ..ऐसा कुछ ज्यदा अच्छा होता शायद 

सादर 

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