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ग़ज़ल इस्लाह के लिए (मनोज कुमार अहसास)

2122 2122 2122 212

इश्क़ मे बेहाल होकर इतना हासिल हो गया
तेरी आहट से यहाँ हर लम्हा महफ़िल हो गया

फैसला करना मुझे ये आज मुश्किल हो गया
दिल से मुझको गम मिला या गम से यूँ दिल हो गया

रात सी चादर लपेटे बर्फ से वो सामने
आखिरी लम्हा मेरा जीने के काबिल हो गया

यूँ तो उसने बेबसी के सब फ़साने लिख दिए
ये नहीं कह पाया कैसे खुद का कातिल हो गया

डबडबाया कुछ ज़रा फिर जज्ब सब कुछ हो गया
किस कदर महफूज़ उन झीलों का साहिल हो गया

हमने खुद को छल लिया या जग ने हमको छल लिया
नाज़ुकी पाने मे ये "अहसास" बिस्मिल हो गया



मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by मनोज अहसास on July 27, 2015 at 11:37pm
बहुत आभार सर
सादर

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Comment by शिज्जु "शकूर" on July 27, 2015 at 9:04pm

अच्छी ग़ज़ल है आदरणीय मनोज जी बहुत बहुत बधाई

Comment by मनोज अहसास on July 27, 2015 at 5:17pm
आप सभी मेहरबान गुणीजनों का शुक्रिया
आपका बड़ा आभार है
सीखने की प्रक्रिया में हूँ
और आप सभी के सुझावों को बहुत दिल से स्वीकार करने का प्रयास करूँगा
और एक बात राहुल सर से

आप बड़े भाई है
नाम लेकर ही पुकारेंगे तो बहुत अच्छा लगेगा
दिल से कहता हूँ


पुनः सबका आभार
सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 27, 2015 at 4:30pm

बढ़िया ग़ज़ल हुई है ... बधाई,  आदरणीय मनोज भाई 

Comment by Ravi Shukla on July 27, 2015 at 3:13pm

आरणीय मनोज जी

ग़ज़ल पर मुबारक बाद कुबूल करें

इश्क़ मे बेहाल होकर इतना हासिल हो गया
तेरी आहट से यहाँ हर लम्हा महफ़िल हो गया

फैसला करना मुझे ये आज मुश्किल हो गया     
दिल से मुझको गम मिला या गम से यूँ दिल हो गया

हुस्‍ने मतला के प्रति आग्रह है तो मिसरा ए सानी को उला करके देखे और आपके मिसरा ए उला में फैसला करना पडा गो काम मुश्किल हो गया से बदल करे शेर पढ़े तो फैसले  और मुश्किल अल्‍फ़ाज़   के बीच ''पड़ा''  की कै‍फियत आसानी से बयां हो सकती है



रात सी चादर लपेटे बर्फ से वो सामने
आखिरी लम्हा मेरा जीने के काबिल हो गया

यूँ तो उसने बेबसी के सब फ़साने लिख दिए
ये नहीं कह पाया कैसे खुद का कातिल हो गया


कह नहीं पाया कि कैसे  खुद का कातिल हो गया  इससे एक मात्रा तो गिराने से बच जाएगी


डबडबाया कुछ ज़रा फिर जज्ब सब कुछ हो गया
किस कदर महफूज़ उन झीलों का साहिल हो गया 

डबडबाया और जैसे जज्‍ब सब कुछ आंख में  ....से झील सी आखों का मंजर और साफ हो सकता है शायद इस शेर में आप आंख और आसूं की बात ही कर र‍हे है

हमने खुद को छल लिया या जग ने हमको छल लिया
नाज़ुकी पाने मे ये "अहसास" बिस्मिल हो गया

गिरती मात्राओं से लय में थोड़ी बाधा आ रही है ऐसा हमें लगा है 

ग़जल अच्‍छी कही है । मुबारक ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 27, 2015 at 12:58pm

आदरणीय मनोज कुमार भाई , बढ़िया गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।

Comment by Samar kabeer on July 27, 2015 at 11:07am
जनाब मनोज कुमार कुमार अहसास जी,आदाब,आपकी ग़ज़लों का सफ़र ख़ूब से ख़ूबतर की तरफ़ जारी है,ये एक अच्छा संकेत है ,बहुत ही अच्छी ग़ज़ल कही है आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
Comment by Rahul Dangi Panchal on July 27, 2015 at 8:23am
माफी चाहता हूँ
मनोज जी " जी" नहीं लग पाया मुँह तो कह दिया पर लिखा नहीं गया
Comment by Rahul Dangi Panchal on July 27, 2015 at 8:22am
भाई मनोज सुन्दर गजल हुई है बधाइयाँ ।
दुसरा शे'र एक बार ऐर देखे शायद उला को सानी लिख दिया।
कुछ जगह तकाबुले रदीफ दोष आ गया है सुधारने की कोशिश किजिए ।
सन्रम
Comment by मनोज अहसास on July 26, 2015 at 10:38pm
बहुत आभार
सादर

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