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बजता हूँ बन के साज तेरे मंदिरों में अब,
देता तुझे आवाज तेरे मंदिरों में अब |
मांगी थी मैंने उम्र की संजीदगी लेकिन,
क्यों इस तरह मुहताज तेरे मंदिरों में अब |
मन जिसका देखूं दुश्मनी की नीव पे काबिज़,
कैसे करूँ परवाज़ तेरे मंदिरों में अब |
बस रौशनी की खोज में भटका तमाम उम्र
पगला गया, नेवाज तेरे मंदिरों में अब |
ले चल मुझे शमशान, कोई गम जहाँ ना हो,
मेरा गया हमराज, तेरे मंदिरों में अब |
हर्ष महाजन
"मौलिक व् अप्रकाशित"
नवाज = ईश्वर/भगवान्
मंदिर = इंसानी देह
Comment
बढ़िया प्रयास आदरणीय , बधाई , शिल्प के बारे में काफ़ी बातें सामने आ ही चुकीं आपके साथ साथ मुझे भी सीखने का मौका मिला , मैं कथ्य के बारे में बस इतना कहना चाहूँगा कि कई मिसरे थोड़े अस्पष्ट लगे मुझे
' कैसे करूँ परवाज़ तेरे मंदिरों में अब '
'मेरा गया हमराज, तेरे मंदिरों में अब'
आदरणीय Rahul Dangi जी बहुत बहुत धन्यवाद....सर आप सभी गुनीजनों का मार्गदर्शन की ज़रुरत है इसी से सब सुलभ होता दिखाई देता है ....अहसासों को डालने की कोशिश भर है | एक लम्बा सफ़र तय करना है | साभार |
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आपने निहायत ही खूबसूरत तरीके से इस रचना को आकर्षित बनाया है | सर आप की सहायता से रफ्ता रफ्ता इस काफिये पर तरह पूरी जीत पाने की कोशिश रहेगी | इसको फिर से कहने की कोशिश जारी रहेगी |आपके इन नए काफियों की इस्लाह के लिए मैं तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ....आईंदा भी आपको तकलीफ देता रहूँगा सर | साभार |
आदरणीय हर्ष जी इस प्रयास पर बधाई. आदरणीय समर कबीर जी की बात से सहमत हूँ मतले में बह्र भटक गई और अशआर में काफिया ही बदल गया. ग़ज़ल की कक्षा का लाभ लेकर पुनः प्रयास अपेक्षित है. सादर
बजता हूँ बन के साज तेरे मंदिरों में अब,
देता तुझे आवाज तेरे मंदिरों में अब |
मांगी थी मैंने उम्र की संजीदगी लेकिन,
क्यों इस तरह मुहताज तेरे मंदिरों में अब |
मन जिसका देखूं दुश्मनी की नीव पे काबिज़,
कैसे करूँ परवाज़ तेरे मंदिरों में अब |
बस रौशनी की खोज में भटका तमाम उम्र
पगला गया नेवाज, तेरे मंदिरों में अब |........ एक ही मिसरे में आज और अब नहीं आ सकता
ले चल मुझे शमशान, कोई गम जहाँ ना हो,
मेरा गया हमराज, तेरे मंदिरों में अब | .............एक ही मिसरे में अब दो बार नहीं आ सकता
यह भी अवश्य है कि उर्दू के मुताबिक ज़ाल(ز)ज़्वाद(ض) ज़ो (ظ)जीम( ج) हमकाफिया नहीं हैं लेकिन ये इस्लाह देवनागरी में लिखी गई ग़ज़ल पर दे रहा हूँ इसलिए इसके फेर में नहीं पड़ता. न मुझे उर्दू लिपि का ज्ञान है. इसलिए इसे देवनागरी में प्रस्तुत ग़ज़ल पर देवनागरी में किया गया निवेदन मान जावे.
सादर
आदरणीय Samar kabeer जी धन्यवाद आपने इस कृति में जो काफिया का दोष बताया है तीसरे चौथे और आखिरी शेर में प्रतीत हुआ...काफिये की क्लास पढ़ रहा हूँ सही कहा... कोशिश जारी रहेगी सर | शुक्रिया |
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