2122 2122 2122 212
किस तरह नादानियों में हम मुहब्बत कर गए,
दी सजा दुनियां ने हमको सारे अरमां मर गए |
कब तलक खारिज ये होगी हक परस्तों की ज़मीं,
महके गुलशन तो समझना कातिलों के सर गए |
बंदिशें अब बेटियों पर, आसमां को छू रहीं,
किस तरह बदला ज़माना, बरसों पीछे घर गए |
प्यार की, हर पाँव से, अब बेड़ियाँ कटने लगीं,
नफरतों में, जुल्फों से, अब फूल सारे झर गए |
लुट रही अस्मत चमन की, कागज़ी घोड़े यहाँ,
और फिर हाले-वतन भी, बद से बदतर कर गए |
"मौलिक व अप्रकाशित" © हर्ष महाजन
Comment
वाह , बहुत खूबसूरत ग़ज़ल आदरणीय हर्ष महाजन जी । आदरणीय मिथिलेश जी का सुझाव भी खूबसूरती बढ़ा रहा है ग़ज़ल की , दिली बधाई..
दाद दिल से दे रहे है इस ग़ज़ल को, लीजिये
आपके अशआर पढ़कर 'हर्ष' जी हम तर गए
दिख रही सम्भावना को सिर्फ साझा कर रहें
आखिरी इस शेर में हम रंग थोड़ा भर गए
लुट रही अस्मत चमन की, कागज़ी घोड़े यहाँ,
और फिर हाले-वतन भी, बद से बदतर कर गए |
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