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आदरणीय दिनेश भाई , लाजवाब गज़ल कही है , सभी अश आर काबिले दाद हुये हैं , वाह !!! हार्दिक बधाइयाँ आपको ।
बस -- इस शेर का सानी मेरे खयाल से बे बहर हो गया है _
जिस्म की आग बुझा कर भी है जब बेचैनी
गर्मी-ए-शौक़ में दीवाने पिघलते क्यूँ हैं ---- इजाफत मे ए की मात्रा 2 लेना सही नही है शायद पता कीजियेगा ।
आरणीय दिनेश जी
बहुत खूब ग़ज़ल हुई है बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय दिनेश भाई जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है. मतला से आखिरी शेर तक शानदार जानदार.... शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं. ये अशआर तो क़माल के हुए है-
जब सियासत के हर इक रंग से हैं हम वाकिफ
रोज़ सरकारों के जुमलों से बहलते क्यूँ हैं
जबकि हासिल न हुआ कुछ भी हसद से फिर भी
लोग इक दूसरे के नाम से जलते क्यूँ हैं
वाह वाह ........... सादर
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