गजल
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बहर - 212 1212 1212 1212
काफिया - अर, रदीफ - मियाँ
किस्म-किस्म के जहर हैं हमपे बेअसर मियाँ
उम्र बीती आदमी का झेलते जहर मियाँ
दर्द बाँटने अगर तू आया है अवाम का
आसमान से जरा जमीन पर उतर मियाँ
सब तुम्हारे गुम्बदों की शान से सिहर गए
झोपड़ी मेरी तबाह कर गए कहर मियाँ
चाह मंजिलों की थी न जीत की ललक रही
वक्त ही गुजारना था, तय किए सफर मियाँ
अंधड़ों से लड़ता एक दीप मिल ही जाएगा
देख अपने दिल में एक बार झांक कर मियाँ
ताज-तख्त ठोकरों पे रहते आए हैं यहाँ
प्यार की गली है ये तमीज से गुजर मियाँ
रक्ख दी थीं म्यूजियम में कीमती धरोहरें
हो गयीं सफाई में कहीं इधर-उधर मियाँ
-------- सुलभ अग्निहोत्री
Comment
वाह वह्ह्ह्ह बहुत शानदार ग़ज़ल हुई शेर दर शेर दाद कुबूलें आ० सुलभ जी|
अादरणीय सुलभ जी बडा पसंद आया ग़ज़ल का अंदाज बधाई कुबूल करें
आ0 सुलभ भाई . इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई .
आदरणीय सुलभ भाई , क्या बात है ! बहुत लाजवाब गज़ल कही है , तेवर भी खूब पसंद आया । पूरी गज़ल के लिये आपको दिली मुबारक बाद ॥
लफ्ज़ दर लफ्ज़ खनकती बह्र में शानदार ग़ज़ल हुई है आदरणीय सुलभ जी. इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद और शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं
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