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डर के यूँ ज़िन्दगी बची तो क्या
और अगर बच नहीं सकी तो क्या
देख क्या आदमी ही जीता है ?
आदमी में है आदमी तो क्या
जब कहे को नही समझते हैं
रह गई बात अनकही तो क्या
भूख आदाब कब समझती है
बे अदब थोड़ी हो गयी तो क्या
जारी फिर चाँद ने किया फतवा
बे असर चाँदनी रही तो क्या
फूल पत्तों में आज खुशियाँ हैं
जड़ अँधेरों से है घिरी तो क्या
दुन्दुभी ही उधर से बजती है
आप लें हाथ बाँसुरी तो क्या
मेरी बस्ती में धूप है काइम
हो कहीं और चाँदनी तो क्या
और क्यों आपको नहीं लगते ?
मै ज़रा सा हूँ मजहबी तो क्या
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , आपकी उपस्थिति से गज़ल गौरवांवित हुई , सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ॥
आदरणीय नीरज प्रेम भाई , आपके स्न्हेहिल सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय सुशील भाई , हौसला अफ्ज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
बहुत ही दिलकश गज़ल लिखी है।
हर एक शेर से लुत्फ़ आया।
बधाई, भाई गिरिराज जी।
वाह भंडारी साहब मै तो कुछ कहने काबिल ही न रहा आपकी ग़ज़ल
पढ़कर ……………
देख क्या आदमी ही जीता है ?
आदमी में है आदमी तो क्या
कितना सारभूत कितना गुढ़ रहस्य लिए हुए आपका ये शेर क्या कहूँ …………
क्या कह सकूँगा .............
मेरी बस्ती में धूप है काइम
हो कहीं और चाँदनी तो क्या
वाह आदरणीय गिरिराज जी वाह बहुत ही खूबसूरत अशआर कहे हैं आपने इस शे'र की गहराई तो गज़ब … हार्दिक बधाई कबूल फरमाएं सर।
आदरणीय मिथिलेश भाई ,शे र दर शेर हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीय गिरिराज सर, शानदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद हाज़िर है. मतला और ये शेर बहुत ही लाजवाब है-
डर के यूँ ज़िन्दगी बची तो क्या
और अगर बच नहीं सकी तो क्या ...शानदार मतला
देख क्या आदमी ही जीता है ?
आदमी में है आदमी तो क्या....... वाह वाह
जब कहे को नही समझते हैं
रह गई बात अनकही तो क्या........... बेहतरीन शेर हुआ है
भूख आदाब कब समझती है
बे अदब थोड़ी हो गयी तो क्या ..... हासिल ए ग़ज़ल
दुन्दुभी ही उधर से बजती है
आप लें हाथ बाँसुरी तो क्या.......... कमाल का शेर
सादर
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